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________________ ३२८ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १४७-१५१ दुवयस्स आतित्थ-पदं १४७. तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे नयरे बहिया गंगाए महानईए अदूरसामंते एग महं सयंवरमंडवं करेह--अणेगखंभ-सयसन्निविट्ठ लीलट्ठिय-सालिभंजियागं जाव पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं--करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणंति।। नायाधम्मकहाओ द्रुपद का आतिथ्य-पद १४७. राजा द्रुपद ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और काम्पिल्यपुर नगर के बाहर महानदी गंगा के आसपास एक महान स्वयंवर मण्डप की रचना ___ करो--जो अनेक शत खम्भों पर सन्निविष्ट हो और प्रत्येक खंभे पर क्रीड़ा करती पुतलियां उत्कीर्ण हो यावत् वह चित्त को आल्हादित करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर और असाधारण हो। ऐसा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १४८. तए णं से दुवए राया (दोच्चंपि?) कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आवासे करेह, करेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव पच्चप्पिणंति ।। १४८. उस द्रुपद राजा ने (दूसरी बार भी?) कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम शीघ्र ही वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं के लिए आवास बनवाओ। बनवाकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १४९. तए णं से दुवए राया वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं आगमणंजाणेत्ता पत्तेयं-पत्तेयं हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणे हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे महयाभड-चडगर-रह-पहकर-विंदपरिक्खित्ते अग्धं च पज्जंच गहाय सव्विड्डीए कपिल्लपुराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताई वासुदेवपामोक्खाई अग्घेण य पज्जेण य सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारेत्ता तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं पत्तेयंपत्तेयं आवासे वियरइ॥ १४९. वह द्रुपद राजा वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजाओं का आगमन जानकर अपने प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हुआ। कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र धारण किया और श्वेत चामरों से वीजित होता हुआ अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगणी सेना के साथ उससे परिवृत हो महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा पथदर्शक वृंद से घिरा हुआ अर्घ्य और पद्य (चरण-पक्षालन करने योग्य जल) लेकर सम्पूर्ण ऋद्धि के साथ काम्पिल्यपुर नगर से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर जहां वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा थे, वहां आया। वहां आकर वासुदेव प्रमुख राजाओं को अर्घ्य और पद्य से सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर वासुदेव प्रमुख राजाओं को पृथक् पृथक् आवास प्रदान किए। १५०. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा जेणेव सया-सया आवासा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हत्थिखधेहितो पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिवसं करेंति, करेत्ता सएसु-सएसु आवासेसु अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता सएसु-सएसु आवासेसु आसणेसु य सयणेसु य सन्निसण्णा य संतुयट्टा य बहूहिं गंधब्वेहि य नाडएहि य उवगिज्जमाणा य उवनच्चिज्जमाणा य विहरति ।। १५०. वे वासुदेव प्रमुख राजा जहां उनके अपने-अपने आवास थे, वहां आए। आकर हस्तिस्कन्धों से उतरे। उतरकर अपनी-अपनी सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर अपने-अपने आवासों में प्रवेश किया। प्रवेशकर अपने-अपने आवासों में आसनों और शयनों पर बैठे और सोए हुए वे बहुत से गीतों से उपगीत और नाटकों से अभिनीत होते हुए विहार करने लगे। १५१. तएणं से दुवए राया कपिल्लपुरं नयरं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह गं तुब्भे देवाणुप्पिया! विपुलं असण-पाण-खाइम-साइमं सुरं च मज्जंच मंसं च सीधुं च पसन्नं च सुबहुं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं च वासुदेव-पामोक्खाणंरायसहस्साणं आवासेससाहरह। तेविसाहरति।। १५१. उस राजा द्रुपद ने काम्पिल्यपुर नगर में प्रवेश किया। प्रवेश कर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और यह विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य और सुरा, मद्य, मांस, सीधु, प्रसन्ना तथा प्रचुर पुष्प, वस्त्र, गंधचूर्ण, माला और अलंकार वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के आवास-गृहों में पहुंचाओ। उन्होंने भी वैसे ही पहुंचाया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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