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________________ नायाधम्मकहाओ ३२९ सोलहवां अध्ययन : सूत्र १५२-१५५ १५२. तए णं ते वासुदेवपामोक्खा तं विपुलं असण-पाण-खाइम- १५२. वे वासुदेव प्रमुख राजा उस विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणा सुरा, मद्य, मांस, सीधु और प्रसन्ना का आस्वादन, लेते हुए, विशेष विसादेमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा विहरंति । आस्वादन लेते हुए, परस्पर बांटते हुए और खाते हुए विहार करने जिमियभुत्तुत्तरागया वियणं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया लगे। भोजनोपरान्त आचमन कर साफ-सुथरे और परम-पवित्र सुहासणवरगया बहूहिं गंधव्वेहिं य नाडएहि य उवगिज्जमाणा य होकर प्रवर सुखासन में बैठकर वे बहुत प्रकार के गीतों से उपगीत उवनच्चिज्जमाणा य विहरति ।। और नाटकों से अभिनीत होते हुए विहार करने लगे। दोवईए सयंवर-पदं १५३. तए णं से दुवए राया पच्चावरण्ह-कालसमयसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे सिंघाडग तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु वासुदेवपामोक्खाणं रायासहस्साणं आवासेस हत्थिखंधवरगया महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वयह--एवं खलु देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलणीए देवीए अत्तियाए, धट्ठज्जुणस्स भगिणीए, दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ । तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा ण्हाया जाव सव्वालंकारविभूसिया हत्थिखंधवरगया सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं वीइज्जमाणा हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिखुडा महयाभड-चडगर-रहपहकर-विंदपरिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तेयं-पत्तेयं नामंकिएसु आसणेसु निसीयह, निसीइत्ता दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठह त्ति घोसणं घोसेह, घोसेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ॥ द्रौपदी का स्वयंवर-पद १५३. उस द्रुपद राजा ने अपराह्न काल के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ, काम्पिल्यपुर नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों पर वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के आवासों के समक्ष प्रवर हस्तिस्कन्ध पर बैठ उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनीदेवी की आत्मजा, धृष्टद्युम्न की बहिन प्रवर राजकन्या द्रौपदी का स्वयंवर होगा। अत: देवानुप्रियो! आप राजा द्रुपद पर अनुग्रह कर, स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और प्रवर हस्तिस्कन्ध पर आरूढ़ हो, कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त श्वेत चामरों से वीजित होते हुए, अश्व, गज, रथ और प्रवर पदाति योद्धाओं से कलित चतुरंगिणी सेना के साथ उससे परिवृत हो, महान सुभटों की विभिन्न टुकड़ियों तथा पथदर्शक वृन्द से घिरे हुए जहां स्वयवर मण्डप हैं वहां आयें। वहां आकर पृथक्-पृथक् नामांकित आसनों पर बैठे। बैठकर प्रवर राजकन्या द्रौपदी की प्रतीक्षा करें--तुम लोग यह घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। १५४. तए णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणंति॥ १५४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् वैसे ही प्रत्यर्पित किया। १५५. तए णं से दुवए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! सयंवरमंडवं आसिय-संमज्जिओवलितं पंचवण्ण-पुप्फोवयारकलियं कालागरु- पवरकुदुंरुक्क-तुरुक्क-धूव-डझंत-सुरभि-मघमघेतगंधुधुयाभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह, कारवेह, करेत्ता कारवेत्ता वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पत्तेयं-पत्तेयं नामंकियाइं आसणाई अत्युयपच्चत्युयाई रएह, रएता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तेवि जाव पच्चप्पिणंति ।। १५५. उस द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! तुम जाओ। स्वयंवर मण्डप में जल का का छिड़काव कर, बुहार-झाड़, गोबर से लीप, विकीर्ण पचरंगे पुष्प-पुज के उपचार से युक्त, काली-अगर, प्रवर कुन्दुरु और लोबान की जलती हुई धूप की सुरभिमय महक से उठने वाली गन्ध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गन्धचूर्णों से सुरभित, गन्धवर्तिका जैसा बनाओ । वहां मंच और अतिमंच स्थापित करो और करवाओ। ऐसा कर और करवा वासुदेव प्रमुख हजारों राजाओं के लिए पृथक्-पृथक् नामांकित आसनों से आस्तृत और प्रत्यास्तृत करो। करके इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी यावत् प्रत्यर्पित किया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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