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पंचमं अज्झयणं : पांचवां अध्ययन
सेलगे : शैलक
उक्खे व-पदं १. जइणं भते! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स
अयमढे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भते! नायज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते?
उत्क्षेप-पद १. भन्ते! यदि श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के चौथे अध्ययन का यह
अर्थ प्रज्ञप्त किया है, तो भन्ते! उन्होंने ज्ञाता के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ प्रज्ञप्त किया है ?
२. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवती नाम नयरी होत्था--पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा नवजोयण- वित्थिण्णा दुवालसजोयणायामा धणवइ-मइ-निम्मिया चामीयरपवर-पागारा नानामणि-पंचवण्ण-कविसीसग-सोहिया अलकापुरिसंकासा पमुइय-पक्कीलिया पच्चक्खं देवलोगभूया ।
२. जम्बू ! उस काल और उस समय द्वारवती नाम की नगरी थी। पूर्व
और पश्चिम में आयत, दक्षिण और उत्तर में विस्तीर्ण, नौ योजन चौड़ी, बारह योजन लम्बी, कुबेर द्वारा स्वयं अपनी मति से निर्मित, स्वर्णमय प्रवर प्राकार वाली, नाना मणियों और पंचरंगे कपिशीर्षों से शोभित अलकापुरी--जैसी प्रमुदित नागरिकों की क्रीड़ा स्थली और साक्षात् स्वर्ग तुल्य थी।
३. तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए रेवतगे
नाम पव्वए होत्था--तुगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे नाणाविहगुच्छगुम्म-लया-वल्लिपरिगए हंस-मिग-मयूर-कोंच-सारसचक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेए अणेगतड-कडग-वियरउज्झर-पवाय-पन्भारसिहरपउरे अच्छरगण-देवसंघ-चारणविज्जाहरमिहुण-संविचिण्ण निच्चच्छणए दसारवर-वीरपुरिसतेलोक्क-बलवगाणं, सोमे सुभगे पियदंसणे सुरूवे पासाईए दरिसणीए अभिरूवे पडिरूवे।।
३. उस द्वारवती नगरी के बाहर ईशानकोण में रैवतक नाम का पर्वत था।
वह ऊंचा, गगन-तल को छूने वाले शिखरों से युक्त, नाना प्रकार के गुच्छ, गुल्म, लता एवं वल्लरियों से परिगत, हंस, मृग, मयूर, क्रोञ्च, सारस, चक्रवाक, मैना एवं कोकिल कुल से उपेत, अनेक तट, कटक, विवर, निर्झर; प्रपात कुछ-कुछ आगे की ओर झुके हुए गिरि-प्रदेश एवं शिखर-समूह से सम्पन्न, अप्सराओं, देवों, चारणों और विद्याधर-मिथुनों से सेवित, सतत उत्सवमय दशाों के मध्य प्रवर वीर पुरुष त्रैलोक्य से भी अतिशायी सत्त्व वाले श्री अरिष्टनेमि से सनाथ, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन, सुरूप, मन को आह्लादित करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था।
४. तए णं रेवयगस्स अदूरसामंते, एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था--सव्वोउय-पुप्फ-फल-समिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए दरिसणीए अभिरूवे पडिरूवे।।
४. उस रैवतक (गिरनार) पर्वत के न अति दूर, न अति निकट नन्दनवन नाम का उद्यान था। वह सभी ऋतुओं में होने वाले फूलों एवं फलों से समृद्ध, रम्य नन्दनवन जैसा मन को आह्लादित करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय था।
५. तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झदेसभाए सुरप्पिए नामंजक्खाययणे ५. उस उद्यान के बीचोंबीच सुरप्रिय नाम का एक यक्षायतन था। वह दिव्य होत्था-दिव्वे वण्णओ।।
था। वर्णक।
६. तत्थ णं बारवईए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसइ । से
णं तत्थ समद्दविजयपामोक्खाणंदसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं राईसाहस्सीणं, पज्जुन्नपामोक्खाणं अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं, संबपामोक्खाणं सट्ठीए दुइंतसाहस्सीणं, वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसाए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पण्णाए बलवगसाहस्सीणं, प्पिणिप्पामोक्खाणं
६. उस द्वारवती नगरी में कृष्ण नाम के वासुदेव राजा निवास करते थे।
वे वहां समुद्रविजय प्रमुख दश दशा), बलदेव प्रमुख पाच महावीरों, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं, प्रद्युम्न प्रमुख साढ़े तीन करोड़ कुमारों, शाम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त योद्धाओं, वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वीरों, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलवानों, रुक्मिणी प्रमुख बत्तीस हजार महिलाओं, अनंगसेना प्रमुख हजारों गणिकाओं का और
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