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नायाधम्मकहाओ
प्रथम अध्ययन : टिप्पण ६७-७३ ३. महापरक्कमे--महान पराक्रम सम्पन्न ।
प्रक्रिया उपलब्ध है। उसके लिए तीन दिन का उपवास और पौषध व्रत ४. महाजसे--महान यशस्वी।
का पालन अनिवार्य है। पौषध में ब्रह्मचर्य का पालन, मणि, स्वर्ण, माला महाजसो--जिसका यश त्रिभुवन में विख्यात हो वह महायशा
वर्णक, विलेपन आदि का परिहार, एकान्तवास, मानसिक एकाग्रता और कहलाता है।
डाभ का बिछौना आवश्यक होता है।
जैन आगम साहित्य में जहां कहीं देवताओं के साथ सम्पर्क करने ५. महब्बले--पर्वत आदि को उखाड़ फेंकने की सामर्थ्य से।
का प्रसंग आया है, इस विधि के प्रयोग का उल्लेख है। युक्त।
द्रष्टव्य-नायाधम्मकहाओ १/१६/२३७, ६. महाणुभावे--महाप्रभावी। वृत्तिकार ने 'महानुभाग' शब्द मानकर
भगवई खण्ड २ पृ.३५ व्याख्या की है। उसका अर्थ है--वैक्रिय आदि क्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न । शान्त्याचार्य के अनुसार जिसे महान अचिन्त्य शक्ति प्राप्त हो उसे महाभाग (महाप्रभावशाली) कहा जाता है। उनके अनुसार पाठान्तर
सूत्र ५६ महानुभाव है और उसका अर्थ है--अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ।
७२. वैक्रिय समुद्घात से विउव्वियसमुग्घाएणं)
___समुद्घात शब्द सम्, उद् और घात--इन तीन शब्दों के योग से ७. महासोक्खे--विशिष्ट सुख सम्पन्न।
बना है। सम् का अर्थ है एकीभाव, उद् का अर्थ है प्रबलता और धात का
अर्थ है जाना। समुद्घात का शाब्दिक अर्थ है--सामूहिक रूप से बलपूर्वक ६८. अकेला अद्वितीय (एगस्स अबिइयस्स) एक--अकेला-राग, द्वेष आदि से मुक्त
आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना या उनका इतस्तत: प्रक्षेपण अद्वितीय--सुरक्षा में नियुक्त पदाति सैनिक आदि के सहयोग का
करना अथवा कर्मपुद्गलों का निर्जरण करना। अभाव ।' प्रस्तुत अर्थ अभय कुमार के प्रसंग में घटित हो सकता है।
समुद्घात के सात प्रकार हैं-- पौषधव्रत के अनुष्ठान में राग-द्वेष आदि वृत्तियों की उपरति तथा बाहरी
१. वेदना २. कषाय ३. मारणान्तिक ४. वैक्रिय सहयोग की निरपेक्षता का होना आवश्यक है।
५. आहारक ६. तैजस ७. केवली समुद्घात।
उपर्युक्त सात अवस्थाओं में आत्म प्रदेश शरीर से बाहर निकलते ६९. पौषधशाला (पोसहशाला)
हैं। प्रस्तुत सूत्र में वैक्रिय समुद्घात की पूरी विधि निर्दिष्ट है। विक्रिया का
अर्थ है--विविध रूपों का निर्माण। उस समय आत्म प्रदेशों का जो बाहर पौषध का अर्थ है अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान । उसको सम्पादित करने की शाला को
प्रक्षेपण होता है, उसका नाम वैक्रिय समुद्घात है। इस प्रक्रिया में सबसे पौषधशाला कहते हैं।
पहले संख्येय योजन लम्बे एक दण्ड के आकार में आत्म प्रदेश बाहर
निकल जाते हैं फिर विभिन्न प्रकार के रत्नों के स्थूल पुद्गलों का ७०. पौषधव्रत निरत (पोसहियस्स)
परिशाटन और सूक्ष्म पुद्गलों का ग्रहण होता है, तत्पश्चात् इच्छित रूप पौषध अनुष्ठान में माला, वर्णक, विलेपन और शस्त्र. मसल आदि की विक्रिया होती है। का परिहार किया जाता है। राग-द्वेष से उपरत हो, दूसरे की सहायता से
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य--ठाणं ३/ ४ पृ. २६१ निरपेक्ष रह ब्रह्मचर्य की साधना पूर्वक आत्मरमण किया जाता है।
भगवई खण्ड १. पृ. २५२-२५३ विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य उत्तरायणाणि ५/२३
७१. मानसिक तादात्म्य स्थापित करता हुआ (मणसीकरेमाणे मणसीकरेमाणे)
यहां दिव्य शक्तियों के साथ सम्पर्क स्थापित करने की पुरी
सूत्र ५७ ७३. क्या दूं, क्या उपहृत करूं? (किं दलयामि किं पयच्छामि?)
ये दोनों क्रियाएं समानार्थक हैं? फिर भी अधिकारी व्यक्ति के
१. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०५९ २. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १०६३
(ख) उत्तराध्ययन बृहद् वृत्ति, पत्र-३६५ --महानुभाग: अतिशया- चिन्त्यशक्तिः।
पाढान्तरतो महानुभावो वा, तत्र चानुभाव:-शापानुग्रहसामर्थ्यम्। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-३८--एकस्य-आन्तरव्यक्त-रागादिसहायवियोगात्, अद्वितीयस्य
तथाविधपदात्यादिसहायविरहात्।
४. वही, ३८.--'पोसहसालाए' त्ति-पौषधं पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य __शाला गृहविशेष:पौषधशाला। ५. विविध प्रकार के रत्नों के विवरण हेतु द्रष्टव्य - उत्तरज्झयणाणि ३६,
७५, ७६ ६. नायाधम्मकहाओ १/१/५६
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