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________________ नायाधम्मकहाओ २०५ अष्टम अध्ययन : सूत्र १५३-१५४ १५३. तए णं से जियसत्तू अप्पणो ओरोहंसि जायविम्हए चोक्खं एवं १५३. अपने अन्त:पुर में अनुरक्त हुए राजा जितशत्रु ने चोक्षा से इस वयासी--तुमणं देवाणुप्पिया! बहूणि गामागर जाव सण्णिवेससि प्रकार कहा-देवानुप्रिये! तुम बहुत से गांव, आकर यावत् सन्निवेशों आहिंडसि, बहूण य राईसर-सत्यवाहप्पभिईणं गिहाइं अणुप्पविससि, में घूमती हो और बहुत से राजा, ईश्वर, सार्थवाह इत्यादि के घरों में तं अत्थियाइं ते कस्सइ रणो वा ईसरस्स वा कहिंचि एरिसए प्रवेश करती हो तो क्या तुमने किसी राजा अथवा ईश्वर के कहीं भी ओरोहे दिट्ठपुव्वे, जारिसए णं इमे मम ओरोहे? ऐसा अन्त:पुर पहले देखा है जैसा मेरा यह अन्त:पुर है? १५४. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया जियसत्तुणा एवं वृत्ता समाणी इस विहसियंकरेइ, करेता एवं क्यासी--सरिसए णं तुम देवाणुप्पिया! तस्स अगडददुरस्स। के णं देवाणुप्पिए! से अगडददुरे? जियसत्तू! से जहानामए अगडदछरे सिया। सेणं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे अण्णं अगडं वा तलागंवा दहं वा सरं वा सागरं वा अपासमाणे मण्णइ--अयं चेव अगडे वा तलागे वा दहे वा सरे वा सागरे वा। तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हव्वमागए। तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासी--से के तुम देवाणुप्पिया! कत्तो वा इह हव्वमागए? तए णं से सामुद्दए ददुदुरे तं कूवददुरं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सामुद्दए ददुरे। तए णं से कूवदुरे तं सामुद्दयं ददुरं एवं वयासी--केमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? तए णं से सामुद्दए ददुरे तं कूवददुदुरं एवं वयासी--महालए णं देवाणुप्पिया! समुद्दे। . तए णं से कूवददुरे पाएणं लीहं कड्ढेइ, कड्ढेत्ता एवं वयासी--एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? नो इणढे समढे । महालए णं से समुद्दे। तए णं से कूवददुरे पुरथिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ता णं पच्चत्थिमिल्लं तीरं गच्छइ, गच्छित्ता एवं वयासी--एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे? नो इणढे समढे। एवामेव तुमपि जियसत्तू अण्णेसिं बहूर्ण राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं भज्जं वा भगिणिं वा धूयं वा सुण्हं वा अपासमाणे जाणसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे, तारिसए नो अण्णेसिं । तं एवं खलु जियसत्तू! मिहिलाए नयरीए कुंभगस्स धूया पभावईए अत्तया मल्ली नाम विदेहरायवरकन्ना रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा, नो खलु अण्णा काइ (तारिसिया?) देवकन्ना वा असुरकन्ना वा नागकन्ना वा जक्खकन्ना वा गंधव्वकन्ना वा रायकन्ना वा जारिसिया मल्ली विदेहरायवरकन्ना (तीसे?) छिन्नस्स वि पायंगुट्ठगस्स इमे तवोरोहे सयसहस्सइमंपि कलंन अग्घइ त्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। १५४. जितशत्रु के ऐसा कहने पर परिव्राजिका चोक्षा ने ईषद् हास्य किया। ईषद् हास्य कर उसने इस प्रकार कहा--तुम उस कूप-मण्डूक के समान हो, देवानुप्रिय! कौन है देवानुप्रिये! वह कूप-मण्डूक? जितशत्रु! जैसे कोई कूप-मण्डूक था। वह वहीं जन्मा, वहीं बढ़ा और अन्य कूप, तालाब, दह, सर अथवा सागर उसने नहीं देखा था। वह मानता था-यही कूप है, यही तालाब है, यही द्रह है, यही सरोवर है और यही सागर है। उस कूप में दूसरा समुद्र का मेंढ़क आ गया। उस कूप-मण्डूक ने समुद्र के मेढ़क से इस प्रकार कहा--कौन हो तुम देवानुप्रिय! कहां से यहां चले आए? समुद्र के मेंढ़क ने कूप-मण्डूक से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! मैं समुद्र का मेंढ़क हूं। कूप-मण्डूक ने उस समुद्र के मेंढ़क से इस प्रकार कहा--कितना बड़ा है देवानुप्रिय! वह समुद्र? ___ समुद्र के मेंढ़क ने कूप-मण्डुक से इस प्रकार कहा--बड़ा है देवानुप्रिय! समुद्र। कूप-मण्डूक ने पांव से लकीर खींची। खींचकर इस प्रकार कहा--इतना बड़ा है देवानुप्रिय! वह समुद्र? यह अर्थ समर्थ नहीं है। बड़ा है वह समुद्र । तब वह कूप-मण्डूक पूर्वी तट से छलांग भर कर पश्चिमी तट पर गया। जाकर इस प्रकार कहा--इतना बड़ा है देवानुप्रिय, वह समुद्र? यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार तुम भी जितशत्रु! बहुत से राजा, ईश्वर, सार्थवाह इत्यादि की भार्या, भगिनी, पुत्री अथवा पुत्रवधू को बिना देखे यही जानते हो,जैसे मेरा अन्त:पुर है, वैसा दूसरों का नहीं है। जितशत्रु! मिथिला नगरी में कुम्भ की पुत्री, प्रभावती की आत्मजा मल्ली नाम की विदेह की प्रवर राजकन्या रूप से, यौवन से और लावण्य से उत्कृष्ट तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है। अन्य कोई भी देवकन्या, असुरकन्या, नागकन्या, यक्षकन्या, गन्धर्वकन्या अथवा राजकन्या वैसी नहीं है, जैसी विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली। तुम्हारा यह अन्त:पुर तो उसके छिन्न पादांगुष्ठ के लक्षांश में भी नहीं आता--ऐसा कहकर, वह जिस दिशा से आयी थी, उसी दिशा में चली गयी। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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