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अष्टम अध्ययन : सूत्र १५५-१६१
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नायाधम्मकहाओ १५५. तए णं से जियसत्तू परिवाइया-जणिय-हासे दूयं सद्दावेइ, १५५. उस परिव्राजिका ने जितशत्रु के मन में अनुराग उत्पन्न कर दिया।
सद्दावेत्ता एवं वयासी--जाव मल्लि विदेहरायवरकन्नं मम राजा ने दूत को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--यावत् विदेह भारियत्ताए वरेहि, जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका।।
की प्रवर राजकन्या मल्ली को मेरी भार्या के रूप में वरण करो। फिर उसका मूल्य राज्य जितना भी क्यों न हो?
१५६. तए णं से दूए जियसत्तुणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे जाव जेणेव
मिहिला नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।।
१५६. जितशत्रु के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट हुए दूत ने यावत् जहां मिथिला
नगरी थी, उस ओर प्रस्थान कर दिया।
याणं संदेस-निवेदण-पदं
दूतों द्वारा सन्देश निवेदन-पद १५७. तए णं तेसिं जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जेणेव १५७. जितशत्रु प्रमुख उन छहों राजाओं के दूतों ने जहां मिथिला नगरी मिहिला तेणेव पहारेत्य गमणाए।
थी, उस ओर प्रस्थान किया।
१५८. तए णं छप्पि दूयगा जेणेव मिहिला तेणेव उवागच्छंति,
उवागच्छित्ता मिहिलाए अग्गुज्जासि पत्तेयं-पत्तेयं खंधावारनिक्स करेंति, करेत्ता लिहिलं रायहाणिं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसित्ता जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पत्तेयं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु साणं-साणं राईणं वयणाई निवेदेति॥
१५८. वे छहों दूत जहां मिथिला थी, वहां आए। वहां आकर मिथिला के
प्रधान उद्यान में अपनी-अपनी सेना का पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर मिथिला राजधानी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां कुम्भ था, वहां आए। वहां आकर प्रत्येक ने दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर अपने-अपने राजाओं के सन्देश अलग-अलग निवेदित
किए।
कुंभएण दूयाणं असक्कार-पदं १५९. तए णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतियं एयमढे सोच्चा आसुरुत्ते
रुटे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडि निडाले साहटु एवं वयासी--न देमि णं अहं तुभं मल्लि विदेहरायवरकन्न ति कटु ते छप्पि दूए असक्कारिय असम्माणिय अवद्दारेणं निच्छुभावे॥
कुम्भ द्वारा दूतों का असत्कार-पद १५९. उन दूतों से यह अर्थ सुनकर कुम्भ क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट,
कुपित, चण्ड और क्रोध से जलता हुआ त्रिवलित भृकुटी को ललाट पर चढ़ाता हुआ इस प्रकार बोला--मैं नहीं देता तुम्हें विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली--ऐसा कहकर उसने छहों दूतों को असत्कृत, असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकलवा दिया।
१६०. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया कुंभएणं
रण्णा असक्कारिय असम्माणिय अवदारेणं निच्छ्भाविया समाणा जेणेव सगा-सगा जणवया जेणेव सयाई-सयाइं नगराइं जेणेव सया-सया रायाणो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-- एवं खलु सामी! अम्हे जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं दूया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला तेणेव उवागया जाव अवद्दारेणं निच्छुभावेइ। "तं न देइ णं सामी! कुंभए मल्लि विदेहरायवरकन्न" साणं-साणं राईणं एयमटुं निवेदेति॥
१६०. वे जितशत्रु प्रमुख छहों राजाओं के दूत राजा कुम्भ द्वारा असत्कृत,
असम्मानित कर पार्श्वद्वार से निकाल दिये जाने पर वे जहां अपने-अपने जनपद थे, जहां अपने-अपने नगर थे और जहां अपने-अपने राजा थे, वहां आए। वहां आकर सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोले-स्वामिन्! हम जितशत्रु प्रमुख छह राजाओं के दूत एक ही साथ जहां मिथिला थी, वहां गये यावत् वहां हमें पार्श्वद्वार से निकलवा दिया गया। अत: स्वामिन्! राजा कुम्भ विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली को नहीं देता--इस प्रकार अपने-अपने राजा से यह अर्थ निवेदन किया।
जियसत्तुपामोक्खाणं कुंभएणं जुज्झ-पदं १६१. तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं याणं अंतिए
एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया
जितशत्रु प्रमुखों का कुम्भ के साथ युद्ध-पद १६१. जितशत्रु प्रमुख वे छहों राजा उन दूतों से यह अर्थ सुनकर,
अवधारण कर क्रोध से तमतमा उठे। रुष्ट, कुपित, चण्ड और
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