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________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र १४४-१५२ २०४ सल्लेणं नत्थि काइ सोही, जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव धोव्वमाणस्स ।। नायाधम्मकहाओ तुम्हारी भी कोई शुद्धि नहीं होती। जैसे खून से सने वस्त्र की शुद्धि खून से ही धोने पर नहीं होती। १४५. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता समाणी संकिया कंखिया वितिगिछिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था, मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए नो संचाएइ किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए, तसिणीया संचिट्ठ। १४५. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के ऐसा कहने पर वह चोक्षा परिव्राजिका शंकित, कांक्षित, विचिकित्सा प्राप्त और भेदसमापन्न हो गई। वह विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली के प्रश्नों का कोई उत्तर" नहीं दे पाई, अत: मौन हो गई। १४६. तएणंतंचोक्खं मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए बहूओ दासचेडीओ १४६. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली की बहुत सी दास-चेटियों ने चोक्षा हीलेंति निंदंति खिंसति गरिहंति, अप्पेगइयाओ हेरुयालेंति की अवहेलना, निन्दा, कुत्सा और गर्दा की। कुछ ने उसको कुपित अप्पेगइयाओ मुहमक्कडियाओ करेंति अप्पेगइयाओ वग्घाडियाओ किया। किसी ने मुंह बनाया। कोई ठहाका मारकर हंसने लगी और करेंति अप्पेगइयाओ तज्जेमाणीओ तालेमाणीओ निच्छुहति ।। कोई उसकी तर्जना-ताड़ना करती हुई बाहर निकल गई। १४७. तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं हीलिज्जमाणी निंदिज्जमाणी खिंसिज्जमाणी गरहिज्जमाणी आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नयाए पओसमावज्जइ, भिसियं गेण्हइ, गेण्हित्ता कन्नतेउराओपडिणिक्खमई, पडिणिक्खमित्ता मिहिलाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता परिव्वाइया-संपरिखुडा जेणेव पंचालजणवए जेणेव कंपिल्लपुरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं पुरओ दाणधम्मं च सोयधम्मं च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी उवदंसेमाणी विहरइ। १४७. विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली की दास-चेटियों द्वारा हीलित निन्दित, कुत्सित, गर्हित होने के कारण वह चोक्षा क्रोध से तमतमा उठी यावत् क्रोध से जलती उसने विदेह की प्रवर राजकन्या मल्ली पर प्रद्वेष किया। उसने वृषिका को उठाया। उसे उठाकर कन्याओं के अन्त:पुर से वापस निकल गई। वहां से निकलकर मिथिला से निष्क्रमण किया। निष्क्रमण कर परिव्राजिकाओं से परिवृत हो, जहां पाञ्चाल जनपद था, जहां काम्पिल्यपुर नगर था, वहां आयी। वहां आकर बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि के सामने दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थाभिषेक का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करने लगी। १४८. तएणं से जियसत्तू अण्णया कयाइ अंतो अतउर-परियाल-सद्धिं संपरिबुडे सीहासणवरगए यावि विहरइ॥ १४८. किसी समय वह जितशत्रु राजा अपने अन्तरंग अन्त:पुर परिवार के साथ, उससे परिवृत हो प्रवर सिंहासन पर बैठा हुआ था। १४९. तए णं सा चोक्खा, परिव्वाइया-संपरिखुडा जेणेव जियसत्तुस्स १४९. परिव्राजिकाओं से परिवृत चोक्षा ने जहां राजा जितशत्रु का भवन रण्णो भवणे जेणेव जियसत्तू राया तेणेव अणुपविसइ, अणुपविसित्ता था, जहां राजा जितशत्रु था, वहां प्रवेश किया। वहां प्रवेश कर जियसत्तुंजएणं विजएणं वद्धावे॥ जय-विजय की ध्वनि से जितशत्रु का वर्धापन किया। १५०. तए णं से जियसत्तू चोक्खं परिब्वाइयं एज्जमाणं पासइ, १५०. जितशत्रु ने आती हुई परिव्राजिका चोक्षा को देखा। देखकर सिंहासन पासित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता चोक्खं सक्कारेइ से उठा। उठकर चोक्षा को सत्कृत किया। सम्मानित किया। सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता आसणेणं उवनिमंतेइ॥ सत्कृत-सम्मानित कर आसन से उपनिमन्त्रित किया। १५१. तए णं सा चोक्खा उदगपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए १५१. वह चोक्षा जल-सिक्त डाभ पर बिछी वृषिका पर बैठ गई। बैठकर भिसियाए निविसइ, निविसित्ता जियसत्तू रायं रज्जे य द्धे य कोसे उसने राजा जितशत्रु से राज्य, राष्ट्र, कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, पुर य कोट्ठागारे य बलेय वाहणेय पुरेय अतउरेय कुसलोदंतं पुच्छइ॥ और अन्त:पुर के विषय में कुशल-समाचार पूछे। १५२. तए णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रण्णो दाणधम्मं च सोयधम्म १५२. चोक्षा राजा जितशत्रु के सामने दानधर्म, शौचधर्म और तीर्थाभिषेक च तित्थाभिसेयं च आघवेमाणी पण्णवेमाणी परूवेमाणी का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण और उपदर्शन करती हुई विहार करने उवदंसेमाणी विहरइ॥ लगी। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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