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नायाधम्मकहाओ
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आभागी भविस्सति, अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व से कुम्मए अगुत्तिदिए।
चतुर्थ अध्ययन : सूत्र १८-२२ वह अनादि-अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा--जैसे वह अगुप्तेन्द्रिय कछुआ।
गुत्तकुम्मस्स सोक्ख-पदं
गुप्त कूर्म का सौख्य-पद १९. तएणं ते पावसियालगा जेणेव से दोच्चे कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, १९. वे दुष्ट शृगाल जहां वह दूसरा कछुआ था वहां आए। वहां आकर
उवागच्छित्ता तंकुम्मगंसव्दओ समंता उव्वत्तेति परियत्तेति आसारेंति उन्होंने उस कछुए को चारों ओर से उलटा, पलटा, सरकाया, दूर संसारेंति चालेंति घट्टेति फर्देति खोभेति नहेहिं आलुपंति दंतेहि य तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, क्षुभित किया, स्पंदित किया, फिर अक्खोडेंति, नो चेवणं संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि नखों से नोचा, दांतो से खींचा, फिर भी वे उस कछुए के शरीर में आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। किंचित् भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद करने
में समर्थ नहीं हुए।
२०. तए णं ते पावसियालगा तं कुम्मगं दोच्चंपि तच्चपि उव्वत्तेति
जाव, नो चेवणं संचायति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।
२०. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को दूसरी-तीसरी बार भी उलटा यावत् वे उस कछुए के शरीर में किंचित भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए। तब वे श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास हो, जिस दिशा से आये थे उसी दिशा में चले गये।
२१. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरगए दूरंगए जाणित्ता
सणियं-सणियं गीवं नीणेइ, नीणेत्ता दिसावलोयं करेइ, करेत्ता जमगसमगं चत्तारि वि पाए नीणेइ, नीणेत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धृयाए जइणाए छेयाए कुम्मगईए वीईवयमाणे- वीईवयमाणे जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणेणं सद्धिं अभिसमण्णागए यावि होत्था।
२१. उन दुष्ट शृगालों को गये बहुत समय बीत चुका है और वे बहुत दूर
चले गये हैं, यह जानकर उस कछुए ने धीरे-धीरे अपनी गर्दन बाहर निकाली। बाहर निकालकर दिशावलोकन किया। अवलोकन कर एक साथ चारों ही पावों को बाहर निकाला। बाहर निकाल कर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत, जवी एवं चतुर कूर्म गति से चलता-चलता वह जहां मृतगंगातीर-हृद था वहां आया। वहां आकर वह अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ अभिसमन्वागत हो गया।
२२. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं समणो वा समणी वा आयरिय
-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे पंच य से इंदियाइं गुत्ताइं भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जवासणिज्जे भवइ।
परलोए वियणंनो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरन्तं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से कुम्मए गुत्तिदिए।
२२. आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो श्रमण अथवा श्रमणी
आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रवजित हो, विहार करता है और उसकी पांचों इन्द्रियां गुप्त होती हैं, तो वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है।
परलोक में भी वह बहुत हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि-अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा--मुक्त हो जायेगा--जैसे, वह गुप्तेन्द्रिय कछुआ।
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