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________________ चतुर्थ अध्ययन : सूत्र १४-१८ १२६ नायाधम्मकहाओ १४. तए णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं सणियं-सणियं एगं पायं १४. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को धीरे-धीरे एक पांव बाहर नीणियं पासंति, पासित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेगियं निकालते हुए देखा। यह देखकर वे शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, तीव्र जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स और उतावली गति से जहां वह कछुआ था, वहां आए। वहां आकर उस तं पायं नहिं आलुपंति दंतेहिं अक्खोडेंति, तओ पच्छा मंसं च कछुए के उस पांव को नखों से नोचा। दांतों से खींचा। उसके बाद सोणियं च आहरेंति, आहारेत्ता तं कुम्मगं सव्वओ समंता उव्वत्तेति उसके मांस और शोणित का आहार किया। आहार कर उस कछुए को जाव नो चेवणं संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाह चारों ओर से उलटा यावत् वे उस कछुए के शरीर में किंचित् भी वा वाबाहं वा उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए। आबाधा या विबाधा उत्पन्न करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए। १५. तए णं ते पावसियालगा तं कुम्मयं दोच्चंपि तच्चंपि सव्वओ १५. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को दूसरी-तीसरी बार भी चारों ओर समंता उव्वत्तेति परियत्तेति आसारेंति संसारेंति चालेंति घट्टेति से उलटा-पलटा, सरकाया, दूर तक सरकाया, चलाया, स्पर्श किया, फदेति खोभेति नहेहिं आलुपंति दंतेहि य अक्खोडेंति, नो चेव णं स्पन्दित किया, क्षुभित किया, नखों से नोचा, दांतों से खींचा, फिर भी संचाएंति तस्स कुम्मगस्स सरीरस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा वे उस कछुए के शरीर में किंचित् भी आबाधा या विबाधा उत्पन्न उप्पाइत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निविण्णा करने में और छविच्छेद करने में समर्थ नहीं हुए, तब वे श्रान्त, समाणा सणियं-सणियं पच्चोसक्कंति, दोच्चंपि एगंतमवक्कमंति। क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर धीरे-धीरे पीछे सरकते गए एवं चत्तारि वि पाया। और दूसरी बार भी एकान्त में चले गए। इस प्रकार उस कछुए ने चारों ही पांवों को बाहर निकाला और दुष्ट शृगालों ने उसके मांस और शोणित का आहार किया। १६. तए णं से कुम्मए ते पावसियालए चिरगए दूरंगए जाणित्ता सणियं-सणियं गीवं नीणेइ। १६. उन दुष्ट शृगालों को गए बहुत समय हो चुका है और वे बहुत दूर चले गये हैं, यह जानकर उस कुछए ने (धीरे-धीरे) अपनी गर्दन को बाहर निकाला। १७. तए णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं (सणियं-सणियं?) गोवं नीणियं पासंति, पासित्ता सिग्घं तुरियं चवलं चंडं जइणं वेगियं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तस्स णं कुम्मगस्स तं गौवं नहेहिं (आलुपंति?) दंतेहिं कवालं विहाडेंति, विहाडेत्ता तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोवेंति, ववरोवेत्ता मंसं च सोणियं च आहारेंति॥ १७. उन दुष्ट शृगालों ने उस कछुए को धीरे-धीरे गर्दन को बाहर निकालते हुए देखा। देखकर वे शीघ्र, त्वरित, चपल, चण्ड, तीव्र और उतावली गति से जहां वह कछुआ था वहां आए। वहां आकर उस कछुए की गर्दन को नखों से नोचा और कपाल को दांतों से विदीर्ण किया। विदीर्ण कर उसे मार डाला, मारकर उसके मांस और शोणित का आहार किया। १८. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे, पंच य से इंदिया अगुत्ता भवंति, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं साक्यिाण यहीलणिज्जे निंदणिज्जे खिसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वि य णं आगच्छइ--बहूणि दंडणाणि य बहूणि मुंडणाणि य बहूणि तज्जणाणि य बहूणि तालणाणि य बहूणि अंबंधणाणि य बहूणि घोलणाणि य बहूणि माइमरणाणि य बहूणि पिइमरणाणि य बहूणि भाइमरणाणि य बहूणि भगिणीमरणाणि य बहूणि भज्जामरणाणि य बहूणि पुत्तमरणाणि य बहूणि धूयमरणाणि य बहूणि सुण्हामरणाणि य। बहूणं दारिद्दाणं बहूणं दोहग्गाणं बहूणं अप्पियसंवासाणं बहूणं पियविप्पओगाणं बहूणं दुक्ख-दोमणस्साणं १८. आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार हमारा जो निम्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी, आचार्य-उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, विहार करता है, उसकी पांचो इन्द्रियां अगुप्त रहती हैं, तो वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के द्वारा हीलनीय, निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड, बहुत मुण्डन, बहुत तर्जना, बहुत ताड़ना, बहुत सांकल- बन्धन, बहुत भ्रमण, बहुत मातृ-मरण, बहुत पितृ-मरण, बहुत भ्रातृ-मरण, बहुत भगिनी-मरण, बहुत भार्या-मरण, बहुत पुत्र-मरण, बहुत पुत्री-मरण और बहुत पुत्रवधु-मरण को प्राप्त होता है। वह (भविष्य में भी) बहुत दरिद्रता, बहुत दौर्भाग्य, बहुत अप्रिय संवास, बहुत प्रिय-विप्रयोग और बहुत दुःख-दौर्मनस्य का आभागी होगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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