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नायाधम्मकाओ
१२९. एवामेव समणाउसो! जो निग्गंयो वा निगांची वा अब्युज्जएणं जणक्यविहारेण विहरह से गं इहलोए चैव बहूणं समणानं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण य अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नम॑सणिज्जे पूर्वाणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे भवइ,
परोएवियनो बहूण हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिववउप्पायणाणि य वसणुण्यायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिद, पुणो अणादयं च णं अणवदग्गं दोहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं बीईवइस्सइ ॥
निक्खेव पदं
१३०. एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते ।
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वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा
सिटिलिय संजम कज्जा वि, होइउं उज्जयति जय पच्छा। संवेगाओ ते सेलओ व्व आराहया होंति ।।१।।
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पांचवां अध्ययन सूत्र १२९-१३०
१२९. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अभ्युद्यत जनपद-विहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनयपूर्वक पर्युपासनीय होता है।
परलोक में भी वह नाना प्रकार के हस्त छेदन, कर्ण छेदन, नासा छेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा ।
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निक्षेप पद
१३०. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के पांचवे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
---ऐसा मैं कहता हूँ ।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा
१. संयम योग में श्लथ होकर भी बाद में संवेगपूर्वक उद्यत विहारी होने वाले शैलक की भांति आराधक हो जाते हैं ।
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