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________________ नायाधम्मकहाओ पांचवां अध्ययन : सूत्र १२४-१२८ १५६ संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जा-संथारए पमत्ते यावि विहरामि । तं नो खलु कप्पइ समणाणं निग्गंथाणं ओसन्नाणं पासत्थाणं कुसीलाणं पमत्ताणं संसत्ताणं उउबद्ध-पीढ-फलगसेज्जा-संथारए पमत्ताणं विहरित्तए । तं सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरित्तए--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ-फलग- सेज्जा-संथारगं पच्चाप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुज्जएणं जणवयविहारेणं विहरइ।। प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त हो विहार कर रहा हूं। श्रमण-निर्ग्रन्थों को अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, प्रमत्त, संसक्त तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक में प्रमत्त होकर रहना कल्पता नहीं। अत: मेरे लिए उचित है, मैं प्रात: काल मंडुक राजा को पूछ, प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप अनगार पंथक के साथ बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर प्रभातकाल में मंडुक राजा से पूछ प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक गृहस्थों को सौंप अनगार पंथक के साथ बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करने लगा। १२५. एवामेव समणाउसो! जे निग्गंथे वा निग्गंथी वा ओसन्ने ओसन्नविहारी, पासत्थे पासत्थविहारी कुसीले कुसीलविहारी पमत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्तविहारी उउबद्ध-पीढ-फलग-सेज्जासंथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणंबहूणं सावियाण य हीलणिज्जे निंदणिज्जे खिंसणिज्जे गरहणिज्जे परिभवणिज्जे, परलोए वियणं आगच्छइ बहूणि दंडणाणि य अणादियं च णं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंत-संसार-कतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ॥ १२५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी अवसन्न, अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-विहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्तविहारी, संसक्त, संसक्त विहारी तथा ऋतुबद्ध पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक में प्रमत्त होकर विहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय, निंदनीय, कुत्सनीय, गर्हणीय और परिभवनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत दण्ड को प्राप्त होगा और अनादि, अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्तवाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: अनुपरिवर्तन करेगा। १२६. तए णं ते पंथगवज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लट्ठा १२६. पन्थक के अतिरिक्त उन पांच सौ अनगारों को जब इस बात की समाणा अण्णमण्णं सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु सूचना मिली तो उन्होंने एक दूसरे को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस देवाणुप्पिया! सेलए रायरिसी पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शैलक राजर्षि अनगार पन्थक के साथ अब्भुज्जएणंजणवयविहारेणं विहरइ । तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! बहिर्वर्ती जनपदों में अभ्युद्यत विहार करने लगे हैं। अत: देवानुप्रियो! अम्हं सेलगंरायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए--एवं सपेहेंति, हमारे लिए उचित है, हम शैलक राजर्षि की उपसम्पदा (निश्रा) में संपेहेत्ता सेलगं रायरिसिं उवसंपज्जित्ता णं विहरति ।। विहार करें--उन्होंने ऐसी संप्रेक्षा की। संप्रेक्षा कर शैलक राजर्षि की उपसम्पदा (निश्रा) में विहार करने लगे। १२७. तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुंडरीयं पव्वयं सणियं-सणियं दुरुहति, दुरुहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता जाव संलेहणा-झूसणा-झूसिया भत्तपाण-पडियाइक्खिया पाओवगमणंणुवन्ना॥ १२८. तए णं से सेलए रायरिसी पंथगपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सहिँ भत्ताई अणसणाए छेदित्ता जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता तओ पच्छा सिद्धा बुद्धा मुत्ता अंतगडा परिनिव्वुडा सव्वदुक्खप्पहीणा। १२७. शैलक राजर्षि और पंथक प्रमुख पांच सौ अनगार जहां पुण्डरीक पर्वत था, वहां आए। आकर धीरे-धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़े। चढ़कर सघन मेघ जैसे वर्ण वाले और देवों के सामागम स्थल, योग्य पृथ्वी शिलापट्ट का प्रतिलेखन किया। प्रतिलेखन कर यावत् संलेखना की आराधना में समर्पित हो, भक्तपान का प्रत्याख्यान कर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। १२८. शैलक राजर्षि और पन्थक प्रमुख पांच सौ अनगार बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, मासिक संलेखना में अपने आपको समर्पित कर अनशन काल में साठ भक्तों का परित्याग कर यावत् प्रवर केवल ज्ञान-दर्शन को उत्पन्न कर, उसके बाद सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, अन्तकृत, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करने वाले हुए। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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