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________________ द्वितीय अध्ययन : सूत्र १४-१७ नायाधम्मकहाओ वेसमणघरए य तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ णं मालाओं (मालाओं और अलंकारों) को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए पणामं करेइ, नाग-गृह यावत् वैश्रवण गृह था वहां आयी। आकर नागप्रतिमाओं ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम किया। कुछ ऊपर उठी। नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य लोमहत्थएणं पमज्जइ, उठकर प्रमार्जनी हाथ में ली। हाथ में लेकर उससे नागप्रतिमाओं यावत् पमज्जित्ता उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता पम्हल-सूमालाए वैश्रवण-प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया। प्रमार्जन कर उदक-धाराओं से गंधकासाईए गायाइं लूहेइ, लूहेत्ता महरिहं वत्थारुहणंच मल्लारुहणं अभिसिञ्चन किया। अभिसिञ्चन कर रोएंदार, सुकुमाल, सुगन्धित च गंधारुहणं च वण्णारुहणं च करेइ, करेत्ता धूवं डहइ, डहित्ता गेरुएं वस्त्र से उन्हें पौंछा। पौंछकर महान अर्हता वाले वस्त्र, माल्य, जन्नुपायपडिया पंजलिउडा एवं वयासी--जइ णं अहं दारगं वा गंधचूर्ण और वर्णक चढ़ाया (अर्पित किया)। चढ़ाकर धूप खेया। धूप दारियं वा पयामि तोणं अहं जायं च दायं च भार्यच अक्खयणिहिं खेकर घुटनों के बल बैठ, प्रणाम किया, प्राञ्जलिपुट हो, इस प्रकार च अणुवड्ढेमि त्ति कटु उवाइयं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी कहा-- तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं विपुलं असण-पाण-खाइम- ____ "यदि मेरे बालक या बालिका उत्पन्न हो जाए तो मैं पूजा, दाय, साइमं आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी भाग और अक्षयनिधि का संवर्द्धन करूं"--उसने ऐसी मनौति की। एवं च णं विहरइ। जिमियभुत्तुत्तरागया वि य णं समाणा मनौती कर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। वहां आकर उस विपुल आयंता चोक्खा परम सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया। अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करती हुई, विशेष स्वाद लेती हुई, बांटती हुई और खाती हुई विहार करने लगी। भोजनोपरान्त आचमन कर साफ सुथरी होकर, परम पवित्र हो, जहां उसका अपना घर था, वहां आयी। १५. अदुत्तरं च णं भद्दा सत्यवाही चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु १५. तत्पश्चात भद्रा सार्थवाही ने चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा विपुलं असण पाण-खाइम-साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडेत्ता बहवे के दिन विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। तैयार नागा य जाव वेसमणा य उवायमाणी नमसमाणी जाव एवं च करवाकर बहुत सारे नाग यावत् वैश्रवण देवों की मनौती करती हुई णं विहरइ॥ यावत् नमन करती हुई विहार करने लगी। भद्दाए देवदिन्न-पुत्तपसव-पदं १६. तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ केणइ कालंतरेणं आवण्णसत्ता जाया यावि होत्था। भद्रा के देवदत्त पुत्र का प्रसव-पद १६. कुछ काल बीत जाने पर, किसी समय भद्रा सार्थवाही गर्भवती हुई। १७. तए णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए (तस्स गब्भस्स?) दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-- धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, जाओ णं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुबहुयं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियण-महिलियाहिं सद्धिं संपरिखुडाओ रायगिह नयरं मझमझेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाहेंति, ओगाहित्ता ण्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति--एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धणं सत्थवाहं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! मम तस्स गन्भस्स दोसु मासेसु वीइक्कतेसु तइए मासे वट्टमाणे इमेयारूवे १७. जब (उस गर्भ के ?) दो महिने बीत गये और तीसरा महिना चल रहा था, उस समय भद्रा सार्थवाही को इस प्रकार दोहद उत्पन्न हुआ-- ___"धन्य हैं वे माताएं यावत् कृत लक्षण हैं वे माताएं, जो विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार ले मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और महिलाओं के साथ उनसे संपरिवृत हो राजगृह नगर के बीचों बीच से होकर निकलती है। निकलकर जहां पुष्करिणी हैं, वहां आती हैं। वहां आकर पुष्करिणी में अवगाहन करती हैं। अवगाहन कर स्नान और बलिकर्म कर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, विपुल अशन, पान ,खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करती हुई, विशेष स्वाद लेती हुई, सबको बांटती हुई और खाती हुई अपना दोहद पूरा करती हैं।"-- उसने ऐसी संप्रेक्षा की। ऐसी संप्रेक्षा कर, उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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