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________________ नायाधम्मकहाओ ९७ दोहले पाउन्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव दोहलं विणेति । तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुबहुयं पुप्फ-वत्थगंध-मल्लालंकार गहाय जाव दोहलं विणित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेहि।। द्वितीय अध्ययन : सूत्र १७-२४ कुछ ऊपर आ जाने पर, वह जहां धन सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर धन सार्थवाह से इस प्रकार बोली-- देवानुप्रिय ! मेरे उस गर्भ के दो महिने बीत जाने पर तीसरे महिने में मुझे इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ--"धन्य हैं वे माताएं यावत् जो अपना दोहद पूरा करती हैं। अत: देवानुप्रिय ! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा बहुत सारे पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, मालाएं और अलंकार लेकर यावत् दोहद पूरा करना चाहती हूं।" देवानुप्रिय! जैसा सुख हो, प्रतिबन्ध मत करो। १८. तए णं सा भद्दा धणेणं सत्थवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी हट्ठट्ठ-चित्तमाणदिया जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियया विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता जाव घुवं करेइ, करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ।। १८. तब धन सार्थवाह से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट, तुष्ट चित्तवाली, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाली भद्रा सार्थवाही ने विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए, तैयार कराकर यावत् धूप खेया। धूप खेकर जहां पुष्करिणी थी वहां आयी। १९. तए णं ताओ मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण- नगरमहिलाओ भई सत्थवाहिं सव्वालंकारविभूसियं करेंति।। १९. वे मित्र, झाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और नगर की महिलाओं ने भद्रा सार्थवाही को सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। २०. तए णं सा भद्दा सत्थवाही ताहिं मित्त-नाइ-नियग-सयण- संबंधि-परियणनगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी दोहलं विणेइ, विणेत्ता जामेव दिसंपाउब्भूया तामेव दिसंपडिगया।। २०. उस भद्रा सार्थवाही ने उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और नगर की महिलाओं के साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन करते हुए, विशेष स्वाद लेते हुए, सबको बांटते हुए और खाते हुए अपना दोहद पूरा किया। दोहद पूरा कर वह जिस दिशा से आयी थी, उसी दिशा में चली गयी। २१. तए णं सा भद्दा सत्थवाही संपुण्णदोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहइ। २१. भद्रा सार्थवाही का दोहद पूरा हुआ। यावत् वह सुखपूर्वक गर्भ का परिवहन करने लगी। २२. तए णं सा भद्दा सत्थवाही नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपायं जाव दारग पयाया। २२. भद्रा सार्थवाही ने पूरे नौ मास और साढ़े सात दिन बीतने पर एक सुकुमार हाथ-पांव वाले यावत् बालक को जन्म दिया। २३. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जायकम्मं करेंति, तहेव जाव विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, तहेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं भोयावेत्ता अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज्जं करेंति--जम्हा णं अम्हं इमे दारए बहूणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे, तं होउ णं अम्हं इमे दारए देवदिन्ने नामेणं । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज करेंति देवदिन्ने त्ति ।। २३. उस बालक के माता-पिता ने पहले दिन जातकर्म संस्कार किया यावत् वैसे ही विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए और वैसे ही मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को भोजन करवाकर इस प्रकार गुणानुरूप गुणनिष्पन्न नाम रखा--"क्योंकि हमने इस बालक को बहुत सी नाग-प्रतिमाओं यावत् वैश्रवण प्रतिमाओं की मनौतियों से प्राप्त किया है, इसलिए हमारे इस बालक का नाम देवदत्त हो।" माता-पिता ने उस बालक का 'देवदत्त' ऐसा नाम रखा। २४. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवड्डेति ।। २४. उस बालक के माता-पिता ने पूजा, दाय, भाग और अक्षय-निधि का संवर्द्धन किया। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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