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________________ नायाधम्मकहाओ ग्यारहवां अध्ययन : सूत्र ९-१० २४८ सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ--एस णं मए पुरिसे सव्वआराहए पण्णत्ते । एवं खलु गोयमा! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति ॥ है, सहने में समर्थ होता है, तितिक्षा रखता है और अविचल रहता है--ऐसे पुरुष को मैंने सर्व आराधक कहा है। गौतम! जीव इस प्रकार आराधक अथवा विराधक होते हैं। निक्खेव-पदं १०. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं एक्कारसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते। --त्ति बेमि।। निक्षेप-पद १०. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के ग्यारहवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। --ऐसा मैं कहता हूँ। वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा १-२. दावद्रव वृक्षों के समान साधु हैं। द्वीप से उठने वाली हवाओं के समान श्रमणों आदि के लिए स्वपक्ष वचन दुःसह-सहना कठिन है। सामुद्रिक हवाओं के समान अन्यतीर्थिकों आदि के कटु-वचन हैं। कुसुम आदि की सम्पदा के समान मोक्ष-मार्ग की आराधना है। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जह दावद्दव-तरुणो, एवं साहू जहेह दीविच्चा। वाया तह समणा इय, सपक्ख-वयणाई दुसहाई।।१॥ जह सामुद्दय-वाया, तहण्णतित्थाइ-कडुयवयणाई। कुसुमाइं संपया जह, सिवमग्गाराहणा तह उIR ।। जह कुसुमाइ-विणासो, सिवमग्ग-विराहणा तहा णेया। जह दीववायु-जोगे, बहु इड्डी ईसि य अणिड्डी ।।३।। तह साहम्मिय-वयणाण, सहणमाराहणा भवे बहुया। इयराणमसहणे, पुण सिवमग्ग-विराहणा योवा।।४।। जह जलहिवाय-जोगे, थेविड्डी बहुयरा अणिड्डी य। तह परपक्खक्खमणे, आराहणमीसि बहु इयरं ।।५।। जह उभयवाय-विरहे, सव्वा तरुसंपया विणट्ठत्ति। अणिमित्तोभय-मच्छर-रूवेह विराहणा तह य ।।। जह उभयवाय-जोगे, सव्वसमिद्धी वणस्स संजाया। तह उभयवयण-सहणे सिवमग्गाराहणा पुण्णा।७।। ता पुण्णसमणधम्माराहणचित्तो सया महापुण्णो। सव्वेण वि कीरतं, सहेज्ज सव्वं पि पडिकूलं ।।। ३-४. कुसुम आदि के विनाश के समान मोक्ष-मार्ग की विराधना है। जैसे द्वीप की हवा के योग से वन-सम्पदा में अधिक वृद्धि होती है, कम हानि होती है, वैसे ही साधर्मिकों के दुर्वचनों को सहन करना बहुत आराधना है और अन्यतीर्थिकों के दुर्वचनों को सहन न करना मोक्ष-मार्ग की स्वल्प विराधना है। ५. जैसे समुद्री-हवाओं के योग से वन-सम्पदा में कुछ वृद्धि होती है और बहुतर हानि होती है, वैसे ही पर-पक्ष के वचनों को सहन करने और स्व-पक्ष के वचनों को सहन न करने से आराधना कम होती है विराधना अधिक होती है। ६. जैसे द्वीप और समुद्र--दोनों की हवाओं के अभाव में सम्पूर्ण तरु-सम्पदा विनष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वपक्ष और परपक्ष दोनों से अकारण ही मत्सर भाव रखने से मोक्ष-मार्ग की सम्पूर्ण विराधना होती है। ७. जैसे दोनों ही प्रकार की हवाओं के योग से वन-सम्पदा सम्पूर्णत: समृद्ध हो जाती है, वैसे ही स्वपक्ष और परपक्ष दोनों के दुर्वचनों को सहन करने से मोक्ष-मार्ग की सम्पूर्ण आराधना होती है। ८. इसीलिए श्रमण-धर्म की पूर्ण आराधना में दत्तचित्त महापुण्यशाली मुनि स्वपक्ष और परपक्ष--दोनों द्वारा किये गये सब प्रकार के प्रतिकूल व्यवहारों को सहन करे। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ersonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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