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________________ अष्टम अध्ययन टिप्पण : २८-३४ भी इनके भिन्न-भिन्न अर्थों की व्याख्या की है, जैसे- संग- आसवेन की भावना । अनुराग मानसिक प्रीति । गृद्धि--विषय सेवन के दोषों को जानते हुए भी उससे विराम न अध्युपपात -- अगम्य का गमन एवं आसेवन । लेना । -- २९. संकेत में बन्धे हुए ( समय - निबद्धा) २. वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ किया है- हमने एक साथ अनुत्तर देव जाति प्राप्त की थी। २ समय निबद्धा का मूल अर्थ है --संकेत में बंधे हुए । १. अर्हत मल्लि प्रमुख सातों मित्र देव भव में इस संकेत में बंधे हुए थे कि भूमि भी है। हम एक दूसरे को प्रतिबोध देंगे। सूत्र- १९८ ३०. प्रभातकालीन भोजन ( मागहओ पायरासो) उस समय मगधदेश में दिन के प्रथम दो प्रहर तक का समय प्रातराश-- प्रभातकालीन भोजन का समय था । ३१. पान्थों को (पंथियाणं) पाधिक और पान्थ इनमें प्रवृत्तिलभ्य अर्थभेद है। आवश्यकता वश यदा कदा पथ पर चलने वाले पथिक और सतत भ्रमणशील पान्थ कहलाते थे। ३२. पथिकों को (पहियाणं) २२४ -- 'पहिय' के संस्कृत रूप दो बनते हैं--पथिक और प्रहित । पथिक -- पथ पर चलने वाले राहगीर प्रहित किसी के द्वारा कहीं प्रेषित।" -- Jain Education International १. निशीथ भाष्य, भाग-३, पृ. ३५० - सज्जणादी पदा एगट्टिया अहवा- आसेवणभावे सज्जनता, मणसा पीतिगमणं रज्जणता, सदोसुवलद्धे वि अविरमो गेधी, अगमगमणासेवणे वि अज्जुववातो । २. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १५६ समयनिबद्धं मनसा निबद्ध-संकेतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति । समक-निबद्धां वा सहितैर्या उपात्ता जातिस्तां देवा अनुत्तरसुराः सन्तः । ३. वही, पत्र- १५९ मागको पारासो त्ति मगधदेशसम्बन्धिन प्रातराशं प्राभातिकं भोजनकालं यावत् प्रहरद्वयादिकमित्यर्थः । ४. वही -- पंथियाणं-ति- पन्थानं नित्यं गच्छतीति पान्थास्त एव पान्थिकास्तेभ्यः । यही पहियाणं पथि गच्छन्तीति पविकास्तेभ्यः प्रहितेभ्यो वा केनापि क्वचित् प्रेषितेभ्यः । - ३३. नागकुमार (नायकुमारा) इसका वाच्यार्थ है इक्ष्वाकुवंश में समुद्भूत क्षत्रियों के राज्य संचालन की क्षमता वाले कुमार। सूत्र २२३ ३४. अन्तकरभूमि (अंतकरभूमि) अन्तकरभूमि का अर्थ है--भव-परम्परा का अन्त कर निर्वाण प्राप्त करने वालों की भूमि - समय। इसलिए इसका दूसरा नाम कालान्तर नायाधम्मकहाओ सूत्र २३३ अन्तकर भूमि दो प्रकार की होती है--युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर भूमि। | युगान्तकर भूमि-युग का अर्थ है --विशेष कालमान। युग क्रमवर्ती होते हैं उसके साधर्म्य से गुरु शिष्य प्रशिष्य आदि के रूप में होने वाली क्रमभावी पुरुष परम्परा को भी युग कहा जाता है। उस युग प्रमित अन्तकर भूमि को युगान्तकर भूमि कहा गया है। पर्यायान्तकर भूमि - तीर्थंकर के केवलित्व काल के अश्रित जो अन्तकर भूमि होती है उसे पर्यायान्तकर भूमि कहा गया है।" - I अर्हत मल्ली के बीसवें पुरुषयुग अर्थात् बीसवीं शिष्य परम्परा तक युगान्तकर भूमि रही । तात्पर्य की भाषा में अर्हत मल्ली से लेकर उनके तीर्थ में बीसवी शिष्य परम्परा तक साधु सिद्ध हुए, उसके पश्चात् सिद्धिगति का व्यवच्छेद हो गया। उनके तीर्थ में पर्यायान्तकर भूमि दो वर्ष पश्चात् प्रारम्भ हुई। अर्थात् मल्ली को कैवल्य प्राप्त हुए जब दो वर्ष सम्पन्न हुए, तब उनके तीर्थ में साधु सिद्ध हुए। उससे पहले किसी श्रमण मुक्ति प्राप्त नहीं की । मतान्तर से केवलिपर्याय के दो मास अथवा चार मास से भी पर्यायान्तकर भूमि का उल्लेख है I For Private & Personal Use Only ६. वहीं, पत्र- १६०-- गायकुमार ति जाताः इष्वाकुवंश-विशेषभूताः तेषां कुमारा:- राज्याह ज्ञातकुमाराः । ७. वही, पत्र - १६१ - - अन्तकराः भवान्तकराः निर्वाणयायिनस्तेषां भूमिकालान्तर भूमिः । ८. शतावृत्ति पत्र- १६१ युगानि कालमानविशेषास्तानि च क्रमवतीनि तत्साधन्यधि क्रमवर्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमितान्तरकरभूमिः युगान्तकरभूमिः परियायतकरभूमीति पर्याय:तीर्थकरस्य केवलित्वातरतमाश्रित्यान्तकरभूमिर्या सा - www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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