SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ नायाधम्मकहाओ प्रथम अध्ययन : सूत्र ८१-८२ निवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहे विपुलं असणपाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं बलं च बहवे गणनायगदंडनायग-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-मंति-महामंतिगणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेट्ठिसेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिवाले आमंतेति । तओ पच्छा बहाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया महइमहालयंसि भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेहिं बलेण च बहूहिं गणनायग-दंडनायग-राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबियमंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमद्दनगर-निगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थवाह-य-संधिवालेहिं सद्धिं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा एवं च णं विहरंति। जिमियभुत्तुत्तरागयावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं बलं च बहवे गणनायग जाव संधिवाले विपुलेणं पुप्फ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति, सम्माणेति, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता एवं वयासी-- जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गब्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु दोहले पाउब्भूए, तं होऊ णं अम्हं दारए मेहे नामेणं। तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फण्णं नामधेज करेंति मेहे इ॥ शिशु को चांद और सूरज के दर्शन करवाए। इस प्रकार अशुचिजात-कर्म से निवृत्त होने तथा बारहवें दिन के आने पर विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को", सेना तथा बहुत से गणनायक, दण्डनायक, राजा, ईश्वर, तलवर (कोतवाल) माडम्बिक, कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, लेखापाल, दौवारिक, अमात्य, सेवक, राजा के आस-पास रहने वाले सखा, नगर, निगम, श्रेष्ठी सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों को आमन्त्रित किया। उसके बाद स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगलरूप प्रायश्चित कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, सुविशाल भोजन-मण्डप में मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों के साथ तथा सेना एवं बहुत से गणनायक, राजा, ईश्वर, तलवर, माडम्बिक कौटुम्बिक, मंत्री, महामंत्री, लेखापाल, दौवारिक, अमात्य, सेवक, राजा के आस-पास रहने वाले सखा, नगर, निगम, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों के साथ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन और विशेष आस्वादन करते हुए परस्पर बांटते हुए और खाते हुए विहार करने लगे। भोजनोपरान्त वे आचमन कर साफ सुथरे और परम पवित्र हो बैठने के स्थान पर आए। उन मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी परिजनों और सेना को तथा बहुत से गणनायक यावत् सन्धिपालों को प्रचुर पुष्प, गन्धचूर्ण, माल्य और अलंकारों से सत्कृत-सम्मानित किया। उन्हें सत्कृत सम्मानित कर इस प्रकार कहा--"क्योंकि हमारा यह बालक जब गर्भ में था, तब अकाल मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ था, इसलिए हमारे बालक का नाम 'मेघ' हो।" इस प्रकार माता-पिता ने उस बालक का गुणानुरूप-गुणनिष्पन्न 'मेघ' ऐसा नाम रखा। मेहस्स लालणपालण-पदं ८२. तए णं से मेहे कुमारे पंचधाईपरिग्गहिए. (तं जहा--खीरधाईए मज्जणधाईए कोलावणधाईए मंडणधाईए अंकधाईए) अण्णाहि य बहूहि--खुज्जाहिं चिलाईहिं वामणीहिं वडभीहिं बब्बरीही बउसीहिं जोणियाहिं पल्हवियाहिं ईसिणियाहिं थारुगिणियाहिं लासियाहिं लउसिहाहिं दामिलीहिं सिंहलीहिं आरबीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं--नानादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं इंगिय-चिंतिय-पत्थिय-वियाणियाहिं सदेस-नेवत्थ-गहिय-वेसाहिं निउणकुसलाहिं विणीयाहिं, चेडियाचक्कवाल-वरिसधर-कंचुइज्ज-महयरग-वंद-परिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं साहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे परिगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परंगिज्जमाणे निव्वाय-निव्वाघायंसि गिरिकंदरमल्लीणे व चंपगपायवे सुहंसुहेणं वड्ढइ। मेघ का लालन-पालन-पद ८२. वह कुमार मेघ पांच धाय-माताओं (क्षीर-धात्री, मज्जन-धात्री, क्रीड़न-धात्री, मण्डन-धात्री, अंक-धात्री) से परिग्रहीत तथा अन्य अनेक परिचारिकाओं से जैसे--कुब्जा, किराती, वामनी, बड़भी, बर्बरी, बकुशी, यवनी, पल्हविका, ईशिनिका, थारुगिणिया, लासक, लकुसिका, द्राविड़ी, सिंहलिकी, अरबी, पौलिन्दी, पक्वणी, बहली, मुरुण्डी, शबरी और पारसी--इन नाना देशीय और विदेश की शोभा बढ़ाने वाली इंगित, चिन्तित और प्रार्थित को जानने वाली, अपने देश के नेपथ्य और वेष को धारण करने वाली, निपुण कुशल और विनीत चेटिकाओं-सेविकाओं के चक्रवाल, वर्षधर, कंचुकी पुरुष और महत्तरवृन्द से घिरा हुआ रहता था। वह एक के हाथ से दूसरे के हाथ में लिया जाता। एक की गोद से दूसरे की गोद में बैठाया जाता। उसे लोरी दी जाती। उसका लालन किया जाता। मणि कुट्टित सुरम्य प्रांगण में खिलाया जाता। इस प्रकार वह निर्वात और निर्व्याघात गिरिकन्दरा में आलीन चम्पक के पौधे की भांति सुखपूर्वक बढ़ रहा था। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy