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________________ नायाधम्मकहाओ १०७ द्वितीय अध्ययन : सूत्र ७४-७७ ७४. से णं धणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं ७४. वह धन देव आयुक्षय, स्थितिक्षय और भवक्षय के अनन्तर उस भवक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव देवलोक से च्युत हो, महाविदेह वर्ष में सिद्ध होगा यावत् सब दुःखों सव्वदुक्खाणमंतं करेहिइ॥ का अन्त करेगा। ७५. जहा णं जंबू! धणेणं सत्यवाहेणं नो धम्मो ति वा तवो त्ति वा कयपडिकया इ वा लोगजत्ता इवा नायए इ वा घाडियए इवा सहाए इवा सुहि त्ति वा विजयस्स तक्करस्स ताओ विपुलाओ असण-पाण-खाइम-साइमाओ संविभागे कए, नण्णत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए। ७५. जम्बू ! जैसे धन सार्थवाह ने विजय तस्कर को धर्म, तप, प्रत्युपकार और लोक यात्रा की दृष्टि से अथवा उसे स्वजन सहचारी, सहायक या सुहृद मानकर, उसे विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का संविभाग नहीं दिया, अपितु उसने केवल शरीर संरक्षण के लिए उसे संविभाग दिया था। ७६. एवामेव जंबू! जे णं अम्हं निग्गंथे वा निग्गंथी वा आयरिय- उवझायाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे ववगय-हाणुमद्दण-पुप्फ-गंध-मल्लालंकार-विभूसे इमस्स ओरालिय-सरीरस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउं वा नो बलहेउं वा नो विसयहेउं वा, तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आहारमाहारेइ, नण्णत्थ नाणदंसणचरित्ताणं वहणट्टयाए, सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे प्रयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिज्जे भवइ, परलोए वि यणं नो बहूणि हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाछेयणाणि य एवं हिययउप्पायणाणि य वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिइ, पुणो अणाइयं चणं अणवदग्गंदीहमद्धं चाउरतं संसारकतारं वीईवइस्सइ--जहा व से धणे सत्यवाहे। ७६. जम्बू ! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो जाने पर स्नान, मर्दन, पुष्प, गन्धचूर्ण माला, अलंकार और विभूषा से उपरत रहता है और इस औदारिक शरीर की आभा के लिए रूप, बल और विषयपूर्ति के लिए उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आहार नहीं करता, अपितु केवल ज्ञान, दर्शन और चारित्र के संवहन के लिए आहार करता है, वह इस लोक में भी बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह नाना प्रकार के हस्त-छेदन, कर्ण-छेदन, नासा-छेदन तथा इसी प्रकार के हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा अपितु वह अनादि, अनन्त, प्रलम्ब मार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा, जैसे--वह धन सार्थवाह । निक्खेव-पदं ७७. एवं खलु जंबू समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमद्धे पण्णत्ते--त्ति बेमि।। निक्षेप-पद ७७. जम्बू ! इस प्रकार सिद्धि-गति नामक स्थान को संप्राप्त यावत् श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दूसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया ऐसा मैं कहता हूं। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा सिवसाहणेसु आहार-विरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धणो व्व विजयं, साहू तं तेण पोसेज्जा।। वृत्तिकार द्वारा समुद्धत निगमन गाथा आहार-विरहित शरीर मोक्ष की साधना में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए साधु आहार से उस (शरीर) का पोषण करे, जैसे कि धन ने (दह चिन्ता के लिए) विजय का पोषण किया था। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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