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________________ नायाधम्मकहाओ २३३ तएणं अहं ओवुज्झमाणे-ओवुज्झमाणे रयणदीवंतेणं संवूढे । तए णं सा रयणदीवदेवया ममं पासइ, पासित्ता ममं गेण्हइ, गेण्हित्ता मए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ । तए णं सा रयणदीवदेवया अण्णया कयाइ अहालहुसगसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवयं पावेइ । तंन नज्जइ णं देवाणुप्पिया! तब्भं पि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ? नवम अध्ययन : सूत्र २६-२९ और माल के डूब जाने पर मैं एक फलक-खण्ड को प्राप्त हुआ और उसके सहारे तैरता-तैरता मैं रत्नद्वीप के तट पर पहुंचा। रत्नद्वीपदेवी ने मुझे देखा। देखकर मुझे अपने साथ लिया और मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करने लगी। किसी समय मुझसे छोटा सा अपराध हो जाने पर परिकुपित हुई रत्नद्वीपदेवी ने मुझे इस प्रकार की विपदा मे डाल दिया। ___पता नहीं, देवानुप्रियो! तुम्हारे भी इन शरीरों पर क्या आपदा आएगी? २७. तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइगस्स अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म बलियतरं भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी--कहण्णं देवाणप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थरेज्जामो? २७, वे माकन्दिक-पुत्र शूली पर चढ़े हुए पुरुष के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर अत्यधिक भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त हो शूली पर चढ़े हुए पुरुष से इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! हम रत्नद्वीपदेवी के हाथ से कैसे निकलें? वाया और पूर्णिमा है। वह शैलक बत होने पर २८. तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं क्यासी--एस णं देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्ले वणसडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नाम आसरूवधारी जक्खे परिवसइ । तए णं से सेलए जक्खे चाउद्दसट्ठमुद्दिठ्ठपुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए महया-महया सद्देणं एवं वदइ--कं तारयामि? कं पालयामि? तं गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह, करेत्ता जन्नुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा विहरह । जाहे णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वएज्जा--कं तारयामि? कं पालयामि? ताहे तुब्भे एवं वदह-- अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि। सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेवयाए हत्याओ साहत्थिं नित्यारेज्जा। अण्णहा भेन याणामि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ? २८. वह शूलि पर चढ़ा हुआ पुरुष उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! पूर्व दिशावाले वनखण्ड में शैलकयक्ष का यक्षायतन है। वहां अश्वरूपधारी शैलक नाम का यक्ष रहता है। वह शैलक यक्ष चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा का समय निकट या उपस्थित होने पर ऊंचे-ऊंचे स्वर से इस प्रकार कहता है--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं? इसलिए देवानुप्रियो! तुम पूर्व दिशावाले वन-खण्ड में जाओ। वहां शैलक यक्ष की महान् अर्हता वाली पुष्प-पूजा करो। फिर घुटनों के बल बैठ, यक्ष के चरणों में मस्तक रख, प्राञ्जलिपुट हो, विनयपूर्वक उसकी पर्युपासना करो। जब समय निकट होने या उपलब्ध होने पर शैलक यक्ष यह कहे कि--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं? तब तुम इस प्रकार कहना--हमें तारो। हमारी रक्षा करो। __ वह शैलक यक्ष निश्चित ही तुमको रत्नद्वीपदेवी के हाथों से बचा लेगा। अन्यथा न जाने तुम्हारे इन शरीरों पर क्या आपदा आएगी? सेलगजक्ख-पदं शैलक यक्ष-पद २९. तए णं ते मागंदिय-दारगा तस्स सूलाइयस्स पुरिसस्स अंतिए रिसम्म तिा २९. वे माकन्दिक पुत्र उस शूली पर चढ़े हुए पुरुष से यह अर्थ सुनकर, एयमढे सोच्चा निसम्म सिग्घं चंडं चवलं तुरियं वेइयं जेणेव । अवधारण कर, शीघ्र, चण्ड, चपल, त्वरित और वेगपूर्ण गति से जहां पुरथिमिल्ले वणसडे जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, पूर्व दिशा वाला वन-खण्ड था, जहां पुष्करिणी थी वहां आए। आकर उवागच्छित्ता पोक्खरिणिं ओगाति, ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेंति, पुष्करिणी में उतरे, उतरकर जलमज्जन किया। जलमज्जन कर वहां करेता जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव ताई गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव जो उत्पल यावत् जो भी शत-पत्र, सहस्रपत्र थे, उन्हें लिया। लेकर वे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जहां शैलक यक्ष का यक्षायतन था, वहां आए। वहां आकर शैलक यक्ष आलोए पणामं करेंति, करेत्ता महरिहं पुप्फच्चणियं करेंति, करेत्ता को देखते ही प्रणाम किया। प्रणाम कर महान अर्हता वाली पुष्पपूजा जन्नुपायवडिया सुस्सूसमाणा नमसमाणा पज्जुवासंति।। की। पुष्पपूजा कर घुटनों के बल बैठ, शुश्रूषा करते हुए नमन की मुद्रा में पर्युपासना करने लगे। Jain Education Intemational Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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