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________________ नवम अध्ययन : सूत्र २१-२६ २३२ णं वावीसु यजाव आलीघरएसु य जाव सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरति । नायाधम्मकहाओ इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां पूर्व दिशा वाला वनखण्ड था वहां आए। वहां आकर वापियों में यावत् आलिगृहों में यावत् सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २२. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा धिई वा अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छति । तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएस य सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरंति।। २२. वे माकन्दिक-पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धति को उपलब्ध नहीं हुए तो वे जहां उत्तर दिशा वाला वन-खण्ड था वहां गए। वहां जाकर वापियों में यावत् आलिगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २३. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा घिई वा अलभमाणा जेणेव पच्चस्थिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छति । तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएस य सुहंसुहेणं अभिरममाणाअभिरममाणा विहरति॥ २३. वे माकन्दिक-पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो वे जहां पश्चिम दिशा वाला वनखण्ड था वहां गए। वहां जाकर वापियों में यावत् आलिगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते हुए विहार करने लगे। २४. तए णं ते मागंदिय-दारगा तत्थ वि सई वा रई वा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवया एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ । तं भवियव्वं एत्य कारणेणं । तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तओ णं गंधे निद्धाइ, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अणिद्वतराए चेव।। २४. वे माकन्दिक पुत्र वहां भी जब स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो उन्होंने एक दूसरे से इस प्रकार कहा--रत्नद्वीप देवी ने हमें इस प्रकार कहा था--देवानुप्रियो! शक्र के संदेश वचन के अनुसार लवणसमुद्र के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है। यावत् कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए। तो यहां कोई कारण होना चाहिए। अत: हमारे लिए उचित है, हम दक्षिण दिशा वाले वनखण्ड में जाएं। उन्होंने परस्पर इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। स्वीकार कर जहां दक्षिण दिशा वाला वनखण्ड था, वहां जाने का संकल्प किया। वहां मृत सर्प जैसी दुर्गन्ध फूटने लगी, यावत् वह गन्ध उससे भी अनिष्टतर थी। २५. तए णं ते मागंदिय-दारगा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सएहि-सएहिं उत्तरिज्जेहिं आसाइं पिहेंति, पिहेत्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसडे तेणेव उवागया। तत्थ णं महं एगं आघयणं पासति--अट्ठियरासि-सय-संकुलं भीम-दरिसणिज्ज । एगंच तत्य सूलाइयं पुरिसं कलुणाई कट्ठाई विस्सराइंकूवमाणं पासंति, भीया तत्था तसिया उब्विग्गा संजायभया जेणेव से सूलाइए पुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं सूलाइयं पुरिसं एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! कस्साघयणे? तुमंच णं के कओ वा इहं हव्वमागए? केण वा इमेयारूवं आवयं पाविए? २५. उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर उन माकन्दिक-पुत्रों ने अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुंह ढक लिए। मुंह ढककर वे जहां दक्षिण दिशा वाला वनखण्ड था वहां आए। वहां आकर एक महान वधस्थान को देखा। वह हड्डियों के सैकड़ों ढेरों से संकुल और देखने में भीम था। वहां उन्होंने शूली पर चढ़े हुए एक पुरुष को देखा। वह पुरुष करुण, कष्टकर और विरूप स्वर से क्रन्दन कर रहा था। उसे देख वे भीत, त्रस्त, तृषित, उद्विग्न और भयाक्रान्त होकर, जहां शूली पर चढ़ा हुआ पुरुष था, वहां आए। वहां आकर शूली पर चढ़े हुए पुरुष से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यह वधस्थान किसका है? तुम कौन हो? यहां कहां से आए हो? और तुम्हें इस प्रकार की विपदा में किसने डाला? २६. तए णं से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिय-दारगे एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए आघयणे । अहं णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ कागदए आसवाणियए विपुलं पणियभंडमायाए पोयवहणेणं लवणसमुदं ओयाए। तएणं अहं पोयवहण-विवत्तीए निब्बुड-भंडसारे एग फलगखंडं आसाएमि। २६. शूली पर चढ़ा हुआ वह पुरुष उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो! यह वध-स्थान रत्नद्वीपदेवी का है। देवानुप्रियो! मैं जम्बूद्वीपद्वीप भारतवर्ष और काकन्दी नगरी का अश्व-वणिक् (घोड़ों का व्यापारी) हूँ। मैं वहां से विपुल पण्य, क्रयाणक लेकर पोत-वहन से लवण-समुद्र में उतरा था। पोत-वहन के भग्न हो जाने Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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