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________________ नायाधम्मकहाओ २३१ नवम अध्ययन : सूत्र २०-२१ य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सरपंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुहंसहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरिज्जाह । जइ णं तुब्भे सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना। यदि तुम वहां भी उद्विग्न, उत्सुक, तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्प्लुत हो जाओ तो तुम पश्चिम वाले वनखण्ड में चले जाना। वहां अवरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा तं दो ऋतुएं सदा विद्यमान हैं, जैसे--वसन्त और ग्रीष्म । जहा--वसंते य गिम्हे य। गाहा-- गाथा-- तत्थ उ-- १. वहां सहकार रूप सुन्दर हार वाला, किंशुक, कर्णिकार और अशोक सहकार-चारुहारो, किंसुय-कण्णियारासोगमउडो। (वृक्ष) रूप मुकुट वाला एवं समुन्नत तिलक और बकुल (वृक्ष) रूप ऊसियतिलग-बकुलायवत्तो, वसंतउऊ नरवई साहीणो।५।। छत्र वाला बसंत रूप राजा विद्यमान है। तत्थ य-- २. वहां गुलाब और शिरीष के पुष्प रूप जल वाला, मल्लिका और पाडल-सिरीस-सलिलो, मल्लिया-वासंतिय-धवलवेलो। वसन्तिका लता रूप उज्ज्वल बेला वाला और शीतल, सुवासित पवन सीयलसुरभि-निल-मगरचरिओ, गिम्हउऊ सागरो साहीणो।६।। रूप मकर-संचार वाला ग्रीष्म ऋतु रूप सागर विद्यमान है। तत्थ णं बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा-अभिरममाणा विहरेज्जाह। जइ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! तत्थ वि उब्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तओ तुम्भे जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छेज्जाह मम पडिवालेमाणा-पडिवालेमाणा चिट्ठज्जाह, मा णं तुब्भे दक्खिणिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे अइकाए महाकाए मसि-महिस-मूसा-कालए नयणविसरोसपण्णे अंजणपुंज-नियरप्पगासे रत्तच्छे जमल-जुयलचंचल-चलंतजीहे धरणितल-वेणिभूए उक्कड-फुड-कुडिलजडुल-कक्खड-वियड-फडाडोव-करणदच्छे लोहागर-धम्ममाणधमधमेंतघोसे अणागलिय-चंडतिव्वरोसे समुहिय-तुरिय-चवलं धमते दिट्ठीविसे सप्पे परिवसइ । मा णं तुब्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ--ते मागंदिय-दारए दोच्चंपि तच्चपि एवं वदति, वदित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए लवणसमुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेउं पयत्ता यावि होत्था॥ वहां तुम बहुत सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न सर-पंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना। देवानुप्रियो! यदि तुम वहां भी उद्विग्न उत्सुक, उत्प्लुत हो जाओ तो तुम जहां श्रेष्ठ प्रासाद है, वहां चले जाना और मेरी प्रतीक्षा करते रहना, लेकिन-तुम दक्षिण दिशा वाले वन-खण्ड में मत जाना। वहां एक महान दृष्टिविष सर्प रहता है। वह उग्रविष, चण्डविष, घोर-विष, अतिकाय, महाकाय, स्याही, महिष और मूषा (स्वर्ण को तपाने वाला भाजन) जैसा काला, विष और रोष से परिपूर्ण आंखों वाला, अंजन पुज्ज के निकर जैसी प्रभा वाला, रक्त-लोचन, अपनी दो जिह्वाओं को चपलतापूर्वक एक साथ भीतर बाहर ले जाने वाला, धरणि-तल की वेणी जैसा, उत्कट, स्फुट, कुटिल, जटिल, कर्कश और विकट फटाटोप करने में दक्ष, भट्टी में तपते हुए लोहे की भांति धमधमायमान, दुर्निवार, चण्ड और तीव्र रोष वाला और कुत्ते के भौंकने जैसा त्वरित, चपल शब्द करने वाला है। अत: कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए--उसनेमाकन्दिक-पुत्रों को दूसरी बार, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा। ऐसा कहकर वैक्रिय-समुद्घात से समवहत हुई। समवहत होकर उस उत्कृष्ट देवगति से इक्कीस बार लवण-समुद्र के चक्कर लगाने में प्रवृत्त हो गई। मादियपुत्ताणं वणसंडगमण-पदं २१. तए णं ते मागंदिय-दारया तओ मुहुत्तंतरस्स पासायवडेंसए सई वा रइं वा घिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! रयणदीव-देवया अम्हे एवं वयासी--एवं खलु अहं सक्कवयण-सदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा निउत्ता जाव मा णं तुम्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ । तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! पुरथिमिल्लं वणसंडं गमित्तए-अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव पुरथिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छंति । तत्थ माकन्दिक-पुत्रों का वनखण्ड गमन-पद २१. मुहूर्त भर के बाद ही वे माकन्दिक-पुत्र जब उस श्रेष्ठ प्रासाद में स्मृति, रति और धृति को उपलब्ध नहीं हुए, तो वे एक दूसरे से इस प्रकार कहने लगें--देवानुप्रिय! रत्नद्वीप देवी ने हमें इस प्रकार कहा था-शक के संदेश-वचन के अनुसार लवणद्वीप के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है, यावत् कहीं तुम्हारे शरीर की व्यापत्ति न हो जाए। अत: देवानुप्रिय! हमारे लिए उचित है हम पूर्व दिशा वाले वनखण्ड में जाएं। उन्होंने परस्पर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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