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________________ नवम अध्ययन : सूत्र १९-२० २३० लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेयव्वे त्ति जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणिय-आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेयव्वं ति कटु निउत्ता। नायाधम्मकहाओ ने उस रत्नद्वीपदेवी को एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया--तुम्हें इक्कीस बार लवण-समुद्र के चक्कर लगाने हैं, वहां जो कुछ घास, पात, काठ, कचरा, अशुचि, पीव और दुर्गन्ध पूर्ण खराब पदार्थ हो, उसे इक्कीस बार उठा उठाकर एकान्त में फेंकना है। २०. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए एवं वयासी--एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयण-संदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव निउत्ता। तं जाव अहं देवाणुप्पिया! लवणसमुद्दे तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कयवरं वा असुइ पूइयं दुरभिगंधमचोक्खं, तं सव्वं आहुणियआहुणिय तिसत्तखुत्तो एगते एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायवडेंसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह । जइ णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उब्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे पुरत्थिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तं जहा--पाउसे य वासारत्ते य। २०. उस रत्नद्वीपदेवी ने उन माकन्दिक-पुत्रों से इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! शक के सन्देश वचन के अनुसार लवण-समुद्र के अधिपति सुस्थित देव ने मुझे एक विशेष कार्य के लिए नियुक्त किया है। अत: देवानुप्रियो! जब तक मैं इक्कीस बार लवण-समुद्र का चक्कर लगाकर वहां जो कुछ घास, पात, काठ, कचरा, अशुचि, पीव और दुर्गन्ध पूर्ण खराब पदार्थ हैं, उसे इक्कीस बार उठा-उठाकर एकान्त में फेंककर वापस आऊं, तब तक तुम यहीं श्रेष्ठ प्रासाद में सुखपूर्वक रमण करते रहो। यदि तुम इस अन्तराल में उद्विग्न, उत्सुक, उत्प्लुत (भयभीत) हो जाओ तो पूर्व वाले वन-खण्ड में चले जाना। वहां दो ऋतुएं सदा उपलब्ध रहती हैं जैसे--प्रावृट् और वर्षा ।' गाहा-- तत्थ उ-- कंदल-सिलिंध-दंतो, निउर-वरपुप्फपीवरकरो। कुडयज्जुण-नीव-सुरभिदाणो, पाउसउऊ गयवरो साहीणो।। तत्थ य-- सुरगोवमणि-विचित्तो, दद्द्वरकुलरसिय-उज्झररवो। बरहिणवंद-परिणद्धसिहरो, वासारत्तउऊ पव्वओ साहीणो||| गाथा-- १. वहां कन्दल और सिलिन्ध्र रूप दांतों वाला प्रवर पुष्पों से लदे निकुर वृक्ष रूप शुण्डादण्ड वाला और कुटज, अर्जुन एवं कदम्ब वृक्षों के फूलों की सुरभि रूप मद जल वाला, पावस ऋतु रूप प्रवर गज विद्यमान है। २. वहां इन्द्रगोप रूप मणियों से विचित्र, मेढ़कों के टर-टर ध्वनि रूप झरनों के कलरव और मयूर समूह सेवित वृक्ष रूप शिखरों वाला वह वर्षा ऋतु रूप पर्वत विद्यमान है। देवानुप्रियो! वहां तुम बहुत-सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न सरपंक्तियों में और बहुत से आलिगृहों, मालिगृहों यावत् कुसुमगृहों में सुखपूर्वक अभिरमण करते रहना । यदि तुम वहां भी उद्विग्न, उत्सुक, उत्प्लुत हो जाओ तो तुम उत्तर वाले वन-खण्ड में चले जाना। वहां दो ऋतुएं सदा विद्यमान हैं, जैसे--शरद और हेमन्त। तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु य बहूसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा अभिरममाणा विहरिज्जाह । जइणं तुब्भे तत्थ वि उव्विग्गा वा उस्सुया वा उप्पया वा भवेज्जाह तो णं तुब्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह । तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तं जहा--सरदो य हेमंतो य। गाहा-- तत्थ उ-- सण-सत्तिवण्ण-कउहो, नीलुप्पल-पउम-नलिण-सिंगो। सारस-चक्काय-रवियघोसो, सरयउऊ गोवई साहीणो।।३।। तत्थ य-- सियकुंद-धवलजोण्हो, कुसुमिय-लोद्धवणसंड-मंडलतलो। तुसार-दगधार-पीवरकरो, हेमंतउऊ ससी सया साहीणो।।४॥ गाथा-- १. वहां सन और सप्तवर्ण रूप ककुद वाला, नीलोत्पल, पद्म और नलिन रूप सींगों वाला और सारस एवं चक्रवाक के शब्द रूप घोष वाला शरद् ऋतु रूप वृषभ विद्यमान है। २. वहां श्वेत कुन्द-पुष्प रूप धवल ज्योत्स्ना वाला, कुसुमित लोध्र-वन-खण्ड-रूप मण्डल वाला और तुषार, जलधार रूप पुष्ट किरणों वाला हेमन्त ऋतु रूप चन्द्रमा सदा विद्यमान है। तत्थ णं तुब्भे देवाणुप्पिया! बहूसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु देवानुप्रियो! वहां तुम बहुत-सी वापियों यावत् सरोवर से संलग्न Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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