________________
२३४
नायाधम्मकहाओ
नवम अध्ययन : सूत्र ३०-३७ ३०. तए णं से सेलए जक्खे आगयसमए पत्तसमए एवं वयासी--कं
तारयामि? कं पालयामि?
३०. वह शैलक यक्ष समय के निकट और उपस्थित होने पर इस प्रकार
बोला--किसको तारूं? किसकी रक्षा करूं?
३१. तए णं ते मागंदिय-दारगा उट्ठाए उद्वेति, उद्वेत्ता करयल
परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--अम्हे तारयाहि अम्हे पालयाहि ।।
३१. वे माकन्दिकपूत्र स्फूर्ति के साथ उठे। उठकर सिर पर प्रदक्षिणा
करती अञ्जलि को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा--हमें तारो। हमारी रक्षा करो।
३२. तए णं से सेलए जक्खे ते मागंदिय-दारए एवं वयासी--एवं
खलु देवाणुप्पिया! तुब्भं मए सद्धिं लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीईवयमाणाणं सा रयणदीवदेवया पावा चंडा रुद्दा खुद्दा साहसिया बहहिं खरएहि य मउएहि य अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं उवसग्गं करेहिइ । तं जए णं तुब्भे देवाणुप्पिया! रयणदीवदेवयाए एयमढे आढाह वा परियाणह वा अवयक्खह वा तो भे अहं पट्ठाओ विहुणामि । अह णं तुन्भे रयणदीवदेवयाए एयमद्वं नो आढाह नो परियाणह नो अवयक्खह तो भे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं नित्थारेमि ।।
३२. वह शैलक यक्ष उन माकन्दिकपुत्रों से इस प्रकार बोला--देवानुप्रियो!
जब तुम मेरे साथ लवण-समुद्र के बीचों-बीच से होकर चलोगे, तब वह दुष्ट, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र, साहसिक रत्नद्वीपदेवी नाना पकार के कठोर, कोमल, अनुकूल, प्रतिकूल, कामोत्पादक, करुणा-जनक उपसर्गों (वचनों) से उपसर्ग करेगी। देवानुप्रियो! यदि तुम रत्नद्वीप देवी के इस अर्थ को आदर दोगे, उसकी ओर ध्यान दोगे या उसकी ओर देखोगे तो मैं तुम्हें अपनी पीठ से नीचे पटक दूंगा।
इसके विपरीत यदि तुम रत्नद्वीपदेवी के अर्थ को आदर नहीं दोगे, उसकी ओर ध्यान नहीं दोगे तथा उसकी ओर नहीं देखोगे तो मैं रत्नद्वीपदेवी के हाथों से तुम्हारा निस्तार कर दूंगा।
३३. तए णं ते मागंदिय-दारगा सेलगं जक्खं एवं वयासी--जंणं ३३. वे माकन्दिक-पत्र शैलक यक्ष से इस प्रकार बोले--देवानप्रिय! जिसके
देवाणुप्पिया वइस्संति तस्स णं (आणा?) उववाय-वयण-निद्देसे लिए कहेंगे, हम उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश में रहेंगे। चिट्ठिस्सामो॥
३४. तए णं से सेलए जक्खे उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ,
अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता संखेज्जाइंजोयणाइंदंड निस्सिरइ, दोच्चंपि वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहण्णइ, समोहणित्ता एगं महं आसरूवं विउव्वइ, विउवित्ता मागंदिय-दारए एवं वयासी--हं भो मागंदिय-दारया! आरुहह णं देवाणुप्पिया! मम पटुंसि ।।
३४. वह शैलक-यक्ष ईशान कोण में गया। वहां जाकर वैक्रिय समुद्घात
से समवहत हुआ। समवहत होकर संख्यात योजन का एक दण्ड निर्मित किया, यावत् दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुआ। समवहत होकर एक महान अश्वरूप की विक्रिया की। विक्रिया कर माकन्दिक पुत्रों से इस प्रकार कहा--माकन्दिक-पुत्रो! देवानुप्रियो! मेरी पीठ पर आरूढ़ हो जाओ।
३५. तए णं ते मागंदिय-दारया हट्ठा सेलगस्स जक्खस्स पणाम
करेंति, करेत्ता सेलगस्स पढे दुरूढा॥
३५. माकन्दिक-पुत्रों ने हर्षित होकर शैलक यक्ष को प्रणाम किया। प्रणाम
कर वे शैलक की पीठ पर आरूढ़ हो गए।
३६. तए णं से सेलए ते मागंदिय-दारए पट्टे दुरुढे जाणित्ता
सत्तद्वतलप्पमाणमेत्ताई उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए दिव्वाए देवगईए लवणसमुदं मझमझेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव चंपा नयरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए।।
३६. वह शैलक उन माकन्दिक-पुत्रों को अपनी पीठ पर आरूढ़ हआ
जानकर सात-आठ हस्ततल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछला। उछलकर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, दिव्य देवगति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच से गुजरता हुआ जहां जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और चम्पानगरी थी, वहां जाने का संकल्प किया।
रयणदीवदेवया-उवसग्ग-पदं
रत्नद्वीपदेवी का उपसर्ग-पद ३७. तए णं सा रयणदीवदेवया लवणसमुदं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टइ, ३७. रत्नद्वीपदेवी ने इक्कीस बार लवणसमुद्र के चक्कर लगाए। वहां
जं तत्थ तणं वा जाव एगंते एडेइ, जेणेव पासायवडेंसए तेणेव घास यावत् जो कुछ था उसे उठा-उठाकर एकान्त में फेंका। जहां
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org