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________________ नायाधम्मकहाओ २३५ नवम अध्ययन : सूत्र ३७-४० उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते मागंदिय-दारए पासायवडेंसए श्रेष्ठ प्रासाद था वहां आयी। आकर उस श्रेष्ठ प्रासाद में माकन्दिक-पुत्रों अपासमाणी जेणेव पुरथिमिल्ले वणसडे तेणेव उवागच्छइ जाव को न देख वह जहां पूर्व दिशा वाला वनखण्ड था वहां आयी यावत् सव्वओ समंता मग्गण-गवसणं करेइ, करेत्ता तेसिं मार्गदिय-दारगाणं सब ओर मार्गणा-गवेषणा की। मार्गणा-गवेषणा करने के उपरान्त भी कत्थइ सुई वा खुइं वा पउत्तिं वा अलभमाणी जेणेव उत्तरिल्ले, जब उन माकन्दिक-पुत्रों का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा एवं चेव पच्चत्थिमिल्ले विजाव अपासमाणी ओहिं पउंजइ, ते वृत्तान्त नहीं मिला, तब वह जहां उत्तर दिशा वाला वनखण्ड था, वहां मागंदिय-दारए सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयमाणे आयी। इसी प्रकार पश्चिम दिशा वाले वनखण्ड में आयी यावत् वे पासइ, पासित्ता आसुरुत्ता असिखेडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सत्तट्ठ दिखाई नहीं दिए तब अवधिज्ञान का प्रयोग किया। उन माकन्दिक-पुत्रों तलप्पमाणमेत्ताई उड्ढं वेहासं उप्पयइ, उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए को शैलक के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जाते हुए देखा, देवगईए जेणेव मागंदिय-दारया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देखकर क्रोध से तमतमा उठी। उसने तलवार और ढाल ली। उसे एवं वयासी--हंभो मागंदिय-दारगा! अपत्थियपत्थया! किण्णं तुन्भे लेकर सात-आठ हस्ततल-प्रमाण ऊपर आकाश में उछली। उछलकर जाणह ममं विप्पजहाय सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं उस उत्कृष्ट देवगति से जहां वे माकन्दिक-पुत्र थे, वहां आयी। वहां मझमझेणं वीईवयमाणा? तं एवमवि गए। जइणं तुब्भे मम आकर उसने इस प्रकार कहा-अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले अवयक्खह तो भे अस्थि जीवियं । अह णं नावयक्खह तो भे इमेणं माकन्दिक पुत्रो! क्या तुम समझते हो कि मुझे छोड़कर शैलक यक्ष के नीलुप्पल गवलगुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर जा सकोगे? यदि तुम मेरी ओर रत्तगंडमंसुयाई माउआहिं उवसोहियाई तालफलाणि व सीसाई देखते हो तो तुम्हारा जीवन है। यदि तुम मेरी ओर नहीं देखते हो एगते एडेमि। तो इस नीलोत्पल भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा और तेज धार वाली तलवार से तुम्हारे रक्ताभ कपोल, दाढ़ी और मूछों से उपशोभित मस्तकों को काटकर तालवृक्ष के फल की भांति एकान्त में फेंक दूंगी। ३८. तए णं ते मागंदिय-दारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म अभीया अतत्था अणुव्विग्गा अक्खुभिया असंभंता रयणदीवदेवयाए एयमढें नो आढति नो परियाणंति नो अवयखंति अणाढायमाणा अपरियाणमाणा अणवयक्खमाणा सेलएणं जक्खेणं सद्धिं लवणसमुदं मझमज्झेणं वीईवयंति॥ ३८. रत्नद्वीप देवी के पास यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर अभीत, अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुब्ध और असम्भ्रान्त उन माकन्दिक-पुत्रों ने रत्नद्वीपदेवी के इस अर्थ को न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया और न उसकी ओर देखा। वे उसको आदर न देते हुए, उसकी ओर ध्यान न देते हुए तथा उसकी ओर न देखते हुए शैलक यक्ष के साथ लवण-समुद्र के बीचोंबीच जा रहे थे। ३९. तए णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय-दारए जाहे नो संचाएइ लोमेहिं उवसग्गेहिं चालित्तए वा लोभित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे महुरेहिं सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहिं उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्था--हंभो मार्गदिय-दारगा! जइणं तुब्भेहि देवाणुप्पिया! मए सद्धिं हसियाणि य रमियाणि य ललियाणि य कीलियाणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुब्भे सव्वाइं अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयह।। ३९, वह रत्नद्वीपदेवी बहुत सारे प्रतिकूल उपसर्गों से उन माकन्दिक-पुत्रों को विचलित, लुब्ध, क्षुब्ध और विपरिणामित करने में समर्थ नहीं हुई, तब वह उन्हें मधुर, कामोत्तेजक और करुण उपसर्गों (वचनों) से उपसर्ग देने का प्रयत्न करने लगी--हे माकन्दिक-पुत्रो! देवानुप्रियो! यदि तुमने मेरे साथ हास्य, रति, लीला, क्रीड़ा, परिभ्रमण और मोहन क्रियाएं की हैं, तो भी तुम उन सबको उपेक्षित कर मुझे छोड़, शैलक-यक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच जा रहे हो। ४०.तएणंसा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी--निच्चंपियणं अहं जिणपालियस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुण्णा अमणामा। निच्चं मम जिणपालिए अणिढे अकते अप्पिए अमणुण्णे अमणामे। निच्चंपि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा।निच्चपियणं ४०. उस रत्नद्वीपदेवी ने जिनरक्षित के मन को अवधिज्ञान से देखा। देखकर वह इस प्रकार बोली--जिनपालित को मैं सदा अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न लुभाने वाली रही हूं। जिनपालित भी मुझे सदा अनिष्ट, अकमनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ और मन को न लुभाने वाला रहा है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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