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नवम अध्ययन सूत्र ४०-४४
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ममं जिणरक्खिए इट्ठे कंते पिए मणुण्णे मणामे । जइ णं ममं जिणपालिए रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं नाव्यक्खड़, किणं तुमपि जिगरक्खिया! ममं रोपमाणिं कंदमाणिं सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं नावयक्खसि ?
जिणरक्खियविवत्ति-पदं
४१. तए गं से जिणरक्लिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुहमणहरेणं तेहि य सम्पणय-सरल-महुर भणिएहिं संजायविउण राए रयणदीवत्स देवपाए तीसे सुंदरपण जहण-वणकर-चरण- नयण - लावण्ण-रूव- जोवण्णसिरिं च दिव्वं सरभसउपगूहियाई विब्बोय - विलसियाणि य विहसिय सफडक्खदिट्ठनिस्ससिय-मलिय उवलतिय थिय-गमण पणयखिज्जियपसाइयाणि य सरमाणे रागमोहियमती अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गतो सविलियं ।।
४२. तए णं जिणरक्खियं समुप्पण्णकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्लगोल्लियमई अवयक्स्वंतं तहेव जवस्त्रे उ सेलए जाणिऊण सणियं-सणियं उव्विहइ नियगपट्ठाहि विगयसद्धे ।।
४३. लए गं सा रणदीवदेवया निस्संसा कलुगं जिगरक्खियं सकलुसा सेलगपद्वाहि ओवयंतं दास! मजोसि त्ति जपमाणी अपत्तं सागरसलिलं गेण्हिय वाहाहिं आरसंत उद्धं उवह अंबरतते ओवयमाणं च मंडलग्गेण परिच्छित्ता नीलुप्यत गवलगुलिय अयसिकुसुमप्यगासेण असिवरेण खंडालडिं करेड़, करेता तत्येव विलवाणं तस्स य सरस - वहियस्स घेत्तूणं अंगमंगाई सरुहिराई उक्खित्तबलिं चउद्दिसिं करेइ, सा पंजली पहिट्ठा ॥
४४. एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरिय-उवज्झायाणं अतिए मुडे भक्त्तिा अगाराज अणगारिवं पव्वइए समाणे पुणरवि माणुस्सए कामभोगे आसयइ पत्थ
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नायाधम्मकहाओ
मैं निरक्षित को सदा इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मन को लुभाने वाली रही हूँ जिनरक्षित भी मुझे सदा इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मन को लुभाने वाला रहा है।
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यदि निपालित मुझको रोती, कलपती, शोक करती, आंसू बहाती और विलपती हुई को नहीं देखता है तो क्या जिनरक्षित तुम भी मुझको रोती, कलपती, शोक करती, आंसू बहाती और वितपती हुई को नहीं देखोगे?
जिनरक्षित का विपत्ति-पद
४१. जिनरक्षित का मन विचलित हो गया। उस कर्णसुखद, मनोहर, आभूषणों की शंकार से एवं उन प्रणय भरे सरल, मधुर वचनों से उसका कामराग द्विगुणित हो गया। उस रत्नद्वीपदेवी के सुन्दर स्तन, जथन, मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप और दिव्य यौवनश्री, स्नेहिल आलिंगन, विभ्रम, विलास, मुस्कान, कटाक्ष- युक्त दृष्टिक्षेप निःश्वास, मर्दन, क्रीड़ा, बैठना, हंस गति से चंक्रमण करना तथा प्रणय के समय होने वाली नाराजगी और प्रसन्नता इन सबको याद करते-करते उसकी मति राग से मोहित हो गयी। विवश और कर्मों के अधीन हो उसने संकोच के साथ पीछे देखा ।
४२. जिनरक्षित के मन में करुणा उत्पन्न हो गई। मृत्यु गले में बांह डालकर उसकी मति को प्रेरित कर रही थी, वह रत्नद्वीपदेवी की ओर देख रहा था--यह सब कुछ जानकर शैलक-यक्ष का उस पर से विश्वास उठ गया और उसने उसे अपनी पीठ से धीरे-धीरे ऊपर उछाल दिया।
४३. जिनरक्षित शैलकयक्ष की पीठ से गिरने के साथ-साथ करुण विलाप करने लगा। यह देख नृशंस और कलुष हृदय वाली रत्नद्वीप देवी बोली-- हे दास! अब तूं मर गया। यह कहकर उसने समुद्र के जल में गिरने से पहले ही अपनी बाहों में जकड़ लिया। जिनरक्षित चिल्लाने लगा। रत्नद्वीपदेवी ने उसे आकाश की ओर उछाला। आकाश से गिरने लगा तब उसे तलवार की नोक से बींधकर नीलोत्पल, भैंसे के सींग और अतसी पुष्प के समान प्रभा वाली तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। टुकड़े करते समय वह विलाप कर रहा था । उसको देवी ने रस लेते हुए मार डाला । उसके रुधिर-सने अंगोपांग को लेकर बलि के रूप में चारों दिशाओं में उछाला और वह अञ्जलिबद्ध होकर हर्षातिरेक का अनुभव करने लगी।
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४४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में प्रव्रजित हो, पुनरपि मनुष्य-सम्बन्धी काम भोगों का आश्रय लेता है, प्रार्थना,
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