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नायाधम्मकहाओ
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नवम अध्ययन : सूत्र ४४-५० पीहेइ अभिलसइ, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं स्पृहा और अभिलाषा करता है, वह इस जीवन में भी बहुत श्रमणों, समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाण य हीलणिज्जे जीव बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा हीलनीय चाउरतं संसारकतारं भुज्जो-भुज्जो अणुपरियट्टिस्सइ--जहा व होता है यावत् वह चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार में पुन: पुन: से जिणरक्खिए।
अनुपरिवर्तन करेगा। जैसे--जिनरक्षित। गाहा
गाथाछलिओ अवयक्खंतो, निरवयक्खो गओ अविग्घेणं। १. भोगों की ओर पीछे मुड़कर देखने वाला जिनरक्षित छला गया। भोगों तम्हा पवयणसारे, निरावयक्खेण भवियव्वं ।।१॥
को पीछे मुड़कर न देखने वाला जिनपालित निर्विघ्न ईप्सित स्थान भोगे अवयक्खंता, पडंति संसारसागरे घोरे।
में पहुंच गया। अत: प्रवचन-सार (चारित्र) को प्राप्त कर परित्यक्त भोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकतारं ।।२।।
काम-भोगों से निरपेक्ष रहें। २. भोगों को पीछे मुड़कर देखने वाले घोर संसार-सागर में गिरते हैं और
भोगों को पीछे मुड़कर न देखने वाले संसार-कान्तार का पार पा जाते
जिणपालियस्स चंपागमण-पदं ४५. तए णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिणपालिए तेणेव उवागच्छइ,
बहूहिं अणुलोमेहि य पडिलोमेहि य खरएहि य मउएहि य सिंगारेहि य कलुणेहि य य उवसग्गेहिं जाहे नो संचाइए चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संता तंता परितंता निविण्णा समाणा जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
जिनपालित का चम्पागमन-पद ४५. वह रत्नद्वीपदेवी जहां जिनपालित था, वहां आयी। बहुत सारे
अनुकूल, प्रतिकूल, कठोर, मधुर, कामोत्तेजक करुण उपसर्गों (वचनों) से जब वह उसको विचलित, क्षुब्ध और विपरिणामित नहीं कर सकी, तो वह श्रान्त, क्लान्त, परिक्लान्त और उदास होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में चली गयी।
४६. तए णं से सेलए जक्खे जिणपालिएण सद्धिं लवणसमुदं मझमझेणं वीईवयइ, वीईवइत्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चपाए नयरीए अगुज्जार्णसि जिणपालियं पट्ठाओ ओयारेइ, ओयारेत्ता एवं वयासी--एस णं देवाणुप्पिया! चंपा नयरी दीसइ त्ति कटु जिणपालियं पुच्छइ, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
४६. वह शैलक-यक्ष जिनपालित के साथ लवणसमुद्र के बीचोंबीच होकर गया। जाकर जहां चम्पा नगरी थी वहां आया। आकर चम्पानगरी के प्रधान उद्यान में जिनपालित को अपनी पीठ से उतारा। उतारकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! यह चम्पानगरी दिखाई दे रही है--ऐसा कहकर उसने जिनपालित से पूछा और उसके पश्चात् जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया।
४७. तए णं से जिणपालिए चंपं नयरिं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता
जेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अम्मापिऊणं रोयमाणे कंदमाणे सोयमाणे तिप्पमाणे विलवमाणे जिणरक्खिय-वावत्तिं निवेदेइ ।।
४७. जिनपालित ने चम्पानगरी में प्रवेश किया। प्रवेश कर जहां अपना
घर था, जहां माता-पिता थे, वहां आया। वहां आकर उसने रोते, कलपते, शोक करते, आंसू बहाते और विलपते हुए माता-पिता से जिनरक्षित के मरण की बात कही।
४८. तए णं जिणपालिए अम्मापियरो (य?) मित्त-नाइ-नियग-
सयण-संबंधि परियणेण सद्धिं रोयमाणा कंदमाणा सोयमाणा तिप्पमाणा विलवमाणा बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करेंति, करेत्ता कालेणं विगयसोया जाया।
४८. जिनपालित और उसके माता-पिता ने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ रोते, कलपते, शोक करते, आंसू बहाते और विलपते हुए बहुत सारे लौकिक मृतक कार्य किए और यथासमय वे शोक-मुक्त हो गए।
४९. तए णं जिणपालियं अण्णया कयाइंसुहासणवरगयं अम्मापियरो
एवं वयासी--कहण्णं पुत्ता! जिणरक्खिए कालगए?
४९. किसी समय प्रवर सुखासन में बैठे हुए जिनपालित से माता-पिता ने
इस प्रकार कहा--पुत्र! जिनरक्षित कैसे काल को प्राप्त हुआ?
५०. तएणं से जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारंच कालियवाय-
५०. जिनपालित ने लवण-समुद्र को तैरना, कालिक वात का उठना, नौका
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