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________________ नायाधम्मकहाओ २५३ बारहवां अध्ययन : सूत्र ५-११ ५. तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभिइओ जियसत्तुं रायं एवं बयासी तहेव णं सामी! जण्णं तुन्भे वयह- अहो णं इमे मणुण्णे असण- पाण- खाइम- साइमे वण्णेणं उववेए जाव सव्विंदियगायपल्हाणिज्जे ।। ५. वे बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि राजा जितशत्रु से इस बोले--स्वामिन्! यह भोजन वैसा ही है, जैसा तुम कह रहे हो । अहो ! यह मनोज्ञ, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत है... यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। सुबुद्धिस्स उवेहा-पदं ६. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं बयासी अहो णं देवाप्पिया सुबुद्धि! इमे मणुष्णे असण पाणखाइम साइमे जाव सव्विदियाय पहायनिज्जे ७. तए णं सुबुद्धी जियसत्तुरस रण्णो एयमहं नो आढाइ नो परियाणा तुसिणीए सचिद ८. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिं दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी -- अहो णं देवाप्पिया सुबुद्धि इमे मगुण्णे असण पाणखाइम साइमे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे ।। ९. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चपि तच्चपि एवं बुत्ते समाणे जिवसत्तुं रामं एवं क्यासीनो खलु सामी! अम्हं एसि मणुस असण- पाण- खाइमं साइमंसि केइ विम्हए । एवं खलु सामी! सुब्भिसद्दा वि पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुब्भिसद्दा वि पोग्गला सुब्भिसद्दत्ताए परिणमति । सुरूवा वि पोगाला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा वि पोग्गला सुरुवताए परिणमति । सुगंधा व पोग्ला दुब्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुब्भिगंधावियोगाला सुब्भगंधत्ताए परिणमति । सुरता वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि पोग्गला सुरसत्ताए परिणमति । सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति, पओग-वीससा - परिणयावि यणं सामी! पोग्गला पण्णत्ता ।। १०. तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स अमच्चस्स एवमाइक्खमाणस्स भासमाणस्स पण्णवेमाणस्स परूवेमाणस्स एयमठ्ठे नो आढाइ नो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठइ ।। जियसत्तुणा फरिहोदगस्स गरहा-पदं ११. तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ व्हाए आसखंधवरगए महयाभडचडगर- आसवाहिणिआए निजायमाणे तस्स फरीहोदयस्स अदूरसामंतेणं वीईवयइ ।। Jain Education International सुबुद्धि की उपेक्षा-पद ६. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा -- अहो देवानुप्रिय सुबुद्धि! यह मनोज्ञ, अशन, पान, साद्य और स्वाद्य वर्ग से उपेत यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। ७. सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को न आदर दिया, न उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा । ८. राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि से दूसरी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहा -- अहो देवानुप्रिय सुबुद्धि! यह मनोज्ञ, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य वर्ण से उपेत यावत् सब इन्द्रियों और अवयवों को प्रल्हादित करने वाला है। ९. राजा जितशत्रु के दूसरी, तीसरी बार भी इस प्रकार कहने पर अमात्य सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा -स्वामिन्! हमें तो इस मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य में कोई विस्मय नहीं होता । स्वामिन्! प्रशस्त शब्द- पुद्गल भी अप्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं और अप्रशस्त शब्द - पुद्गल भी प्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरूप पुद्गल भी कुरूपता में परिणत हो जाते हैं और कुरूप पुद्गल भी सुरूपता में परिणत हो जाते हैं। सुरभिगन्ध- पुद्गल भी दुरभिगन्धता में परिणत हो जाते हैं और दुरभि गन्ध-पुद्गल भी सुरभिगन्धता में परिणत हो जाते हैं। सुरस पुद्गल भी विरसता में परिणत हो जाते हैं और विरस पुद्गल भी सुरसता में परिणत हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले पुद्गल भी, दु:खद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं और दुःखद स्पर्श वाले पुद्गल भी सुखद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामिन्! पुद्गल प्रयत्न परिणत भी हैं और विससा - परिणत भी हैं--ऐसा प्रज्ञप्त है। ' १०. जितशत्रु राजा ने इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते हुए सुबुद्धि अमात्य के इस अर्थ को न आदर दिया न उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा । जितशत्रु द्वारा परिखोदक की गर्हा - पद ११. किसी समय वह जितशत्रु राजा स्नान कर, प्रवर अश्व-स्कन्ध पर आरूढ़ हो, महान सैनिकों की टुकड़ियों के साथ घुड़सवारी के लिए जाता हुआ, उस परिखा के जल के आसपास से होकर गया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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