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नायाधम्मकहाओ
बारहवां अध्ययन : सूत्र १२-१७ १२. तए णं जियसत्तू राया तस्स फरिहोदगस्स असुभेणं गंधेणं
अभिभूए समाणे सएणं उत्तरिज्जगेणं आसगं 'पिहेइ, पिहेत्ता' एगंतं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी--अहो णं देवाणुप्पिया! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंघेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥
१२. जितशत्रु राजा ने परिखा के जल की उस अशुभ गंध से अभिभूत
होकर अपने उत्तरीय-वस्त्र से मुँह ढंक लिया। मुँह ढंक कर वह एकान्त में चला गया। एकान्त में जाकर वह बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि से इस प्रकार बोला--अहो देवानुप्रियो! यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है--जैसे कोई मृत सांप हो यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है।
१३. तए णं ते बहवे ईसर जाव सत्थवाहपभियओ एवं वयासी--तहेव
णं तं सामी! जंणं तुब्भे वयह--अहोणं इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥
१३. बहुत से ईश्वर यावत् सार्थवाद आदि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार
कहा--स्वामिन्! यह जल वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो। यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है, जैसे कोई मृत सांप हो...यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है।
१४. तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी--अहो
णं सुबुद्धि! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंघेणं पण्णत्ते॥
१४. राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से इस प्रकार कहा--अहो सुबुद्धि!
यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है और स्पर्श से अमनोज्ञ है, जैसे कोई मृत सांप हो...यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है।
सुबुद्धिस्स उवेहा-पदं १५. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुस्स रण्णो एयमढें नो आढाइ
नो परियाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ।।
सुबुद्धि की उपेक्षा पद १५. सुबुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को न आदर दिया, न
उसकी ओर ध्यान दिया किन्तु वह मौन रहा।
१६. तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धिं अमच्चं दोच्चपि तच्चपि
एवं वयासी--अहो णं सुबुद्धि! इमे फरिहोदए अमणुण्णे वण्णेणं अमणुण्णे गंधेणं अमणुण्णे रसेणं अमणुण्णे फासेणं, से जहानामए--अहिमडे इ वा जाव अमणामतराए चेव गंधेणं पण्णत्ते॥
१६. जितशत्रु राजा ने दूसरी बार, तीसरी बार भी अमात्य सुबुद्धि से इस
प्रकार कहा--अहो सुबुद्धि! यह परिखा का जल वर्ण से अमनोज्ञ है, गन्ध से अमनोज्ञ है, रस से अमनोज्ञ है, स्पर्श से अमनोज्ञ है जैसे कोई मृत सांप हो यावत् यह उससे भी अमनोगततर गन्ध वाला है।
१७. तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चंपि तच्चंपि १७. राजा जितशत्रु के दूसरी, तीसरी बार भी ऐसा कहने पर अमात्य
एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी--नो खलु सामी! अम्हं एयंसि सुबुद्धि ने राजा जितशत्रु से इस प्रकार कहा--स्वामिन्! हमें तो इस फरिहोदगंसि केइ विम्हए। एवं खलु सामी! सुब्भिसद्दा वि परिखा के जल में कोई विस्मय नहीं होता। स्वामिन्! प्रशस्त शब्द पुद्गल पोग्गला दुब्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुन्भिसद्दा वि पोग्गला भी अप्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं और अप्रशस्त शब्द सुन्भिसद्दत्ताए परिणमति । सुरूवा वि पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, पुद्गल भी प्रशस्त शब्दों के रूप में परिणत हो जाते हैं। सुरूप पुद्गल दुरूवा वि पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति । सुब्भिगंधा वि पोग्गला भी कुरूपता में परिणत हो जाते हैं और कुरूप पुद्गल भी सुरूपता में दुन्भिगंधत्ताए परिणमंति, दुन्भिगंधा वि पोग्गला सुन्भिगंधत्ताए परिणत हो जाते हैं। सुरभि गन्ध-पुद्गल भी दुरभिगन्धता में परिणत परिणमंति । सुरसा वि पोग्गला दुरसत्ताए परिणमंति, दुरसा वि हो जाते हैं और दुरभि गन्ध-पुद्गल भी सुरभिगन्धता में परिणत हो जाते पोग्गला सुरसत्ताए परिणमंति । सुहफासा वि पोग्गला दुहफासत्ताए हैं। सुरस पुद्गल भी विरसता में परिणत हो जाते हैं और विरस पुद्गल परिणमंति, दुहफासा वि पोग्गला सुहफासत्ताए परिणमंति। भी सुरसता में परिणत हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले पुद्गल भी दुःखद पओग-वीससा-परिणया विय णं सामी! पोग्गला पण्णत्ता। स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं और दु:खद स्पर्श वाले पुद्गल भी
सुखद स्पर्श के रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामिन्! पुद्गल प्रयत्न-परिणत भी हैं और विस्रसा-परिणत भी हैं--ऐसा प्रज्ञप्त है।
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