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नायाधम्मकहाओ
७२. तए णं से सागरदत्ते एगं महं दमगपुरिसं पासइ -- दंडिखंडनिवसणं खंडमल्लग - खंडघडग - हत्थगयं फुट्ट - हडाहड-सीसं मच्छियासहस्सेहिं अन्निज्जमाणमणं ।।
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सोलहवां अध्ययन : सूत्र ७२-७८
७२. सागरदत्त ने एक महान द्रमक पुरुष को देखा। वह सान्धा हुआ वस्त्र-खण्ड पहने, हाथ में फूटा हुआ भिक्षापात्र और फूटा हुआ घड़ा लिए था। सिर के बाल अत्यंत बिखरे हुए थे और मक्खियों का दल उसका पीछा कर रहा था ।
७३. तए णं से सागरदते सत्यवाहे कोटुंबियरिसे सहावे सहावेत्ता एवं वयासी -- तुब्भेणं देवाणुप्पिया! एयं दमगपुरिसं विपुलेणं असण पाण- स्लाइम - साइमेणं पलोभेट, गिहं अणुप्यवेसेह अणुप्यवेत्ता खंडमल्लगं खंडघडगं च से एगते एहेह, एहेत्ता अलंकारियकम्मं करेह, हायं कयबलिकम्मं कय- कोउयमंगल - पायच्छितं सब्वालंकारविभूतियं करेह, करेत्ता मणुष्णं असण- पाण- खाइम - साइमं भोयावेह, मम अंतियं उवणेह ।।
७४. तए णं ते कोहुवियपुरिसा जाव परिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता जेणेव से दमगपुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं दमगं असण- पाणखाइम साइमेणं उप्पलोर्भेति उवप्यतोभेत्ता स हिं अणुप्पवेसंति, अणुप्पवेसेत्ता तं खंडमल्लगं खंडघडगं च तस्स दमपुरिस एगते एति ।।
७५. तए णं से दमगे तंसि खंडमल्लगंसि खंडघडगंसि य एडिज्जाणंसि महया - महया सद्देणं आरसइ ।।
७६. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे तस्स दमगपुरिसस्स तं महया - महया आरसियल सोच्चा निसम्म फोटुंबियपुरिसे एवं क्यासी किन्न देवाप्पिया! एस दमणपुरिसे महवा महवा सद्देणं आरसइ ?
७७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा एवं वयंति-एस णं सामी! तसि खंडमल्लगसि खंडघडगंसि य एडिज्जमाणसि महया महया सद्देणं आरसइ ।।
७८. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे ते कोदुबियपुरिसे एवं क्यासी मा गं तुम्मे देवाणुपिया! एयरस दमगस्स तं खंडमल्ल संघटगं च एते एडेह, पासे से ठवेह जहा अपत्तियं न भवइ । ते वि तहेव ठवेंति, ठवेत्ता तस्स दमगस्स अलंकारियकम्मं करेंति, करेत्ता सयपागसहस्सपाहिं तेल्लेहिं जन्मगति, अन्मंगिए समाणे सुरभिणा गंधट्टएणं गायं उब्वटेति, उम्वट्टेत्ता उसिणोदग-गंधोदएण पहाणेति सीओदगेणं ण्हाणेंति, पहल- सुकुमालाए गंधकासाईए गायाइं लूहेंति, लूहेत्ता हंसलक्खणं पडगसाडगं परिर्हेति, सव्वालंकारविभूसियं करेति, विपुलं असण पाणखाइम साइमं भोयावेति भोयावेता सागरदत्तस्स उवणेंति ।।
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७३. सागरदत सार्थवाह ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो ! तुम इस दरिद्र पुरुष को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रलोभित करो, इसे घर में लाओ। लाकर इसका फूटा हुआ भिक्षापात्र तथा फूटा हुआ घड़ा एकान्त में फेंको। उसे फेंककर आलंकारिक कर्म (क्षीरकर्म) कराओ। इसे नहलाकर बलिकर्म और कौतुक, मंगल रूप प्रायश्चित कराकर सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित करो। विभूषित कर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वा खिलाओ और फिर मेरे पास लाओ।
७४. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार किया। स्वीकार कर, जहां वह द्रमक पुरुष था वहां आए। वहां आकर उस द्रमक को अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से प्रलोभित किया। प्रलोभित कर उसे अपने घर में लाए। घर में लाकर उस द्रमक पुरुष का फूटा हुआ) भिक्षापात्र और फूटा घड़ा एकान्त में फेंक दिया।
७५. उस फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे हुए घड़े को फेंकते ही दरिद्र जोर-जोर से रोने लगा।
७६. सागरदत्त सार्थवाह ने दरिद्र पुरुष के जोर-जोर से रोने के शब्द को सुनकर, अवधारण कर, कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! यह द्रमक पुरुष जोर-जोर से क्यों रो रहा है?
७७. वे कौटुम्बिक पुरुष इस प्रकार बोले-- स्वामिन्! उस फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे पड़े को फेंक देने के कारण यह जोर-जोर से रो रहा है।
७८. सागरदत्त सार्थवाह ने कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! तुम इस दमक-पुरुष के फूटे हुए भिक्षापात्र और फूटे घड़े को एक ओर मत फेंको, किन्तु इसके पास रख दो, जिससे इसे अप्रतीति न हो ।
उन्होंने वैसे ही रख दिया। रखकर उस द्रमक के आलंकारिक कर्म करवाए। करवाकर शतपाक (सहस्रपाक) तेल से मालिश करवायी । सुगन्धित गात्रोद्वर्तन (पीठी) से शरीर का उबटन किया । उबटन कर गन्धोदक और उष्णोदक से नहलाया। फिर शीतोदक से नहलाया ।
एदार, सुकोमल, सुगन्धित काषाय- वस्त्र से उसका शरीर पौंछा। पौंछकर हंसलक्षण पट- शाटक पहनाए। सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित किया। विद्युत अशन, पान, साद्य और स्वाद्य का भोजन कराया, भोजन कराकर उसे सागरदत्त के पास लाए।
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