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सोलहवां अध्ययन सूत्र ६६-७१
६६. तए गं सा दासचेही सूमालियाए दारियाए एयमहं सोच्या जेनेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमहं निवेदेइ ।।
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नायाधम्मकहाओ
६६. वह दासचेटी कुमारी सुकुमालिका से यह अर्थ सुनकर जहां सागरदत्त सार्थवाह था, वहां आयी। वहां आकर सागरदत्त को यह अर्थ निवेदित किया।
सामरदलेण जिणदत्तस्स उवालंभ पर्द
६७. तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म आसुरुते रुद्धे कुविए डिक्किए मिसिमिसेमाणे जेणेव जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छिता जिणदत्तं सत्यवाहं एवं क्यासी - किण्णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुताणुरूवं वा कुलसरिसं वा जण्णं सागरए दारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसवडियं पइव्वयं विप्पजहाय इहमागए? बहूहिं खिज्जणियाहि य टणिवाहि व उपालंभइ ।।
सागरस्स पुणोगमण व्युदास-पदं
६८. तए णं से जिणदत्ते सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स एयमट्ठे सोच्चा जेणेव सागरए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी दुट्टु णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागच्छतेणं । तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स विहे ।।
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६९. लए गं से सागरए दारए जिणदत्तं सत्यवाहं एवं क्यासी- अवियाई अहं ताओ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुप्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलणप्पवेसं वा विसभक्त्रणं वा सत्योवाहणं वा देहाणसं वा गिद्धपट्टं वा पव्वज्जं वा विदेसगमणं वा अब्भुवगच्छेज्जा, नो खलु अहं सागरदत्तस्स सिंहं गच्छेजा ।।
सूमालियाए दमगेण सद्धिं पुणब्विवाह-पदं
७०. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे कुडुंतरियाए सागरस्स एयम निसामेइ, निसामेत्ता लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहाओ पडिनिक्खम, पडिनिक्त्रमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता अंके निवेसे, निवेसेत्ता एवं वयासी- किण्णं तव पुत्ता! सागरएणं दारएणं? अहं णं तुमं तस्स दाहामि, जस्स णं तुमं इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा भविस्ससि त्ति सूमालियं दारियं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मनुष्णाहिं मणामाहिं वम्मूहिं समासासे, समासासेता पडिविसज्जे ।।
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७१. तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे अण्णया उप्पिं आगासतलगंसि सुहनिसणे रायमग्गं ओलेएमाणे- ओलोएमाणे चिट्ठइ ।।
सागरदत्त द्वारा जिनदत्त का उपालम्भ - पद
६७. उस दासचेटी से यह अर्थ सुनकर, अवधारण कर सागरदत्त सार्थवाह क्रोध से तमतमा उठा। वह रुष्ट, कुपित, रौद्र और क्रोध से जलता हुआ, जहां जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहां आया। वहां आकर जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! क्या यह युक्त, पात्र, कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि कुमार सागर बिना किसी अपराध के पतिव्रता कुमारी सुकुमालिका को छोड़कर यहां आ गया?
इस प्रकार बहुत लीज और अवज्ञापूर्ण शब्दों से उसे उलाहना दिया ।
सागर के पुनर्गमन का व्युदास-पद
६८. जिनदत्त सागरदत्त सार्थवाह से यह अर्थ सुनकर, जहां सागर था, वहां आया। वहां आकर कुमार सागर से इस प्रकार कहा - सागरदत्त के घर से शीघ्र यहां आकर तूने बहुत गलत काम किया है। खैर हुआ सो हुआ। पुत्र! तूं अब भी सागरदत्त के घर चला जा ।
६९. वह कुमार सागर जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार बोला -- पिताजी! मैं किसी गिरि पतन, वृक्ष-पतन, मरु-प्रपात, जल-प्रवेश, ज्वलन-प्रवेश, विष- भक्षण, शस्त्र - उत्पाटन, फांसी, गृध-पृष्ठ-मरण, प्रव्रज्या अथवा विदेश गमन को स्वीकार कर सकता हूँ, किन्तु सागरदत्त के घर नहीं
जा सकता।
सुकुमालिका का दमक के साथ पुनर्विवाह पद
७०. सागरदत्त सार्थवाह ने कुमार सागर के इस अर्थ को दीवार के पीछे से सुना सुनकर लज्जित, व्रीडित और विशेष लज्जित होकर जिनदत्त सार्थवाह के घर से निकला निकलकर जहां उसका अपना घर था, वहां आया। वहां आकर कुमारी सुकुमालिका को बुलाया। बुलाकर उसे अपनी गोद में बिठाया । बिठाकर इस प्रकार कहा - पुत्री ! तुझे कुमार सागर से क्या प्रयोजन ? मैं तुझे उस व्यक्ति को दूंगा, जिसे तूं इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत होगी। इस प्रकार उसने कुमारी सुकुमालिका को उन इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वचनों से भलीभांश्वस्त किया। आश्वस्त कर प्रतिविसर्जित कर दिया ।
७१. वह सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर खुले आकाश में सुखपूर्वक बैठा हुआ राजमार्ग का अवलोकन कर रहा था।
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