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________________ ३१३ नायाधम्मकहाओ ६०. तए णं से सागरदारए सूमालियाए दारियाए दोच्चंपि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ जाव अकामए अवसवसे मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठइ।।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र ६०-६५ ६०. कुमार सागर ने दूसरी बार भी कुमारी सुकुमालिका के अंग-स्पर्श का ऐसा प्रतिसंवेदन किया यावत् वह अनचाहे ही विवशता से वहां मुहूर्त भर रहा। ६१. तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओ उद्वेइ, उद्वेत्ता वासघरस्स दारं विहाडेइ, विहाडेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिंपाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। ६१. कुमार सागर कुमारी सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोयी जानकर सुकुमालिका के पास से उठा। उठकर वासघर का द्वार खोला। खोलकर वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। सूमालियाए चिंता-पदं सुकुमालिका का चिन्ता-पद ६२. तए णं सा समालिया दारिया तओ महत्तंतरस्स पडिब्रद्धा ६२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् कुमारी सुकुमालिका जागी। पतिव्रता, पति पतिव्वया पइमणुरत्ता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उद्वेइ, के प्रति अनुरक्ता उस सुकुमालिका ने जब पति को अपने पास नहीं सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणी- देखा तो वह शय्या से उठी। कुमार सागर की चारों ओर खोजबीन करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-- करते-करते उसने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर वह इस गएणं से सागरए त्ति कटु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही प्रकार बुदबुदायी--'सागर तो चला गया।' यह कहकर वह भग्न हृदय अट्टज्झाणोवगया झियायइ।। हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई, चिन्ता मग्न हो गई। ६३. तए णं सा भद्दा सत्थवाही कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुम देवाणुप्पिए! बहूवरस्स मुहधोवणियं उवणेहि॥ ६३. उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उस भद्रा सार्थवाही ने दास-चेटी को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तू जा और वधू-वर के लिए मुख धावनिका (दतौन आदि) ले जा। ६४. तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ता समाणी एयमढें तहत्ति पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता मुहधोवणियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं ओहयमणसंकप्पं करतलपल्हत्थमुहिं अट्टज्माणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता एवं वयासी--किण्णं तुम देवाणुप्पिए! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि? ६४. उस दास-चेटी ने भद्रा सार्थवाही के ऐसा कहने पर उसके इस अर्थ को तथेति' कहकर स्वीकार किया। स्वीकार कर मुख धावनिका को लिया। लेकर जहां वासधर था, वहां आयी। वहां आकर उसने कुमारी सुकुमालिका को भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबे हुए चिन्ता मग्न देखा। देखकर उसने इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! तुम भग्न हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए, आत-ध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न क्यों हो रही हो? ६५. तए णं सा सूमालिया दारिया तं दासचेडिं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिए! सागरए दारए ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उद्वेइ, उद्वेत्ता वासघरद्वारं अवंगुणेइ, अवंगुणेत्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णंहं तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पतिव्वया पइमणुरत्ता पई पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उडेमि सागरस्स दारगस्स सव्वओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणी-करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासामि, पासित्ता गए णं से सागरए ति कटु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टमाणोवगया झियायामि। ६५. कुमारी सुकुमालिका ने उस दास-चेटी से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! कुमार सागर मुझे सुखपूर्वक सोयी जानकर मेरे पास से उठा। वासघर का द्वार खोला और वधस्थान से मुक्त कौवे की भांति जिस दिशा से आया था, वहां उसी दिशा में चला गया। उसके जाने के मुहूर्त भर पश्चात् मैं जागी। पतिव्रता और पति के प्रति अनुरक्ता मैं पति को अपने पास न देखकर शयनीय से उठी। कुमार सागर की चारों ओर खोज करते-करते मैंने वासघर का द्वार खुला देखा। देखकर सागर तो चला गया-यह सोचकर भान हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न हो रही हूं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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