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________________ नायाधम्मकहाओ परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता तं मित्त-नाइनियम- सयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असण पाणखाइम साइमेणं धूव पुप्फ-वत्य-गंधमल्लालंकारेण य सक्कारेता सम्माणेता तस्सेव मित्त-नाइनियम- सपण संबंधि परियणस्स चउण्ड व सुण्हाणं कुलघरवग्गस्त पुरओ उन्हं सुण्हाणं परिवखगट्टयाए पंच-पंच सालिअक्स्त्रए दलता जाणामि ताव का किह वा सारखे वा ? संगोवे वा ? संवड्ढेइ वा ? एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, मित्त-नाइ - नियगसयण-संबंधि-परियणं चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ, तओ पच्छा पहाए भोषणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइनियम- सयण संबंधि- परिवणेणं चठण्ड व सुण्हाणं कुलधरवगेणं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादेमाणे जाव सक्कारेड, सक्कारेत्ता तस्सेव मिलना नियग-रायण संबंधि मित्त-नाइपरियणस्स चउन्हय सुम्हाणं कुलधरवग्गस्स पुरओ पंच सालिजक्खए गेण्डर, गेण्हित्ता जे सुन्हं उज्झियं सदावेद, सहावेत्ता एवं क्यासी तुमं णं पुत्ता! मम हत्याओ इमे पंच सालिजक्लए गेहाहि, अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा, तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्सए पडिनिज्जाएज्जासि त्ति कट्टु सुहाए हत्ये दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ ।। -- - ७. तए गं सा उज्झिया धणस्स तह त्ति एवम पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता धणस्स सत्यवाहस्स हत्याओ ते पंच सालिअक्लए गेण्ड गेण्डित्ता एतमवक्कमइ, एगंतमवक्कमियाए इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकल्ये समुप्यज्जित्था एवं खलु तायाणं कोद्वागारंसि बहवे पल्ला सालीणं परिपुष्णा चिट्ठति, सं जपा गं मम ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएसइ, तया णं अहं पल्लंतराओ अण्णे पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्ति कट्टु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता ते पंच सालिअक्खए एगंते एडेइ, सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्या ।। ८. एवं भोगवइयाए वि, नवरं सा छोल्लेह, छोल्लेत्ता अणुगिलह अणुगिलित्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्या ।। १६७ Jain Education International ९. एवं रक्खियाए वि, नवरं - गेण्हइ, गेण्हित्ता एगंतमवक्कमइ, , सप्तम अध्ययन सूत्र ६-९ जाने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी परिजनों और चारों बहुओं के पीहर वालों को आमन्त्रित कर उन मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों को विपुल, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य तथा धूप, पुम, वस्त्र, गन्धचूर्ण माला और अंलकारों सत्कृत सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने चारों बहुओं की परीक्षा के लिए उन्हें पांच-पांच शातिकण देकर यह जानूं कि कौन किस प्रकार उनका संरक्षण, संगोपन अथवा संवर्धन करती है। उसने ऐसी सप्रेक्षा की । सप्रेक्षा कर उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्त्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर, विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाए। मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों को आमन्त्रित किया। उसके बाद उसने स्नान कर भोजन मंडप में प्रवर सुखासन में बैठ उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के साथ उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वादन किया यावत् उनको सत्कृत किया। सत्कृत कर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी, परिजन और चारों बहुओं के पीहर वालों के सामने ही पाँच शालिकण ग्रहण किए। ग्रहण कर बड़ी बहू उज्झिता को बुलाया। उसे बुलाकर इस प्रकार कहा -- बेटी! तू मेरे हाथ से ये पांच शालिकण ग्रहण कर और क्रमशः इनका संरक्षण और संगोपन करती रह। बेटी ! मैं जब से तुझ पांच शालिक मागू, तब तू मुझे ये पांच शालिकण लौटा देना- ऐसा कहकर उसने बहू के हाथ में शालिकण दिए। देकर उसे प्रतिविसर्जित कर दिया। ७. उज्झिता ने 'तथास्तु' कहकर धन सार्थवाह के इस कथन को स्वीकार किया। स्वीकार कर उसने धन सार्थवाह के हाथ से पाँच शालिकण लिए । लेकर एकान्त में गई । एकान्त में जाने पर उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ पिताजी के कोष्ठागार में चावलों के बहुत पल्प भरे हैं। अतः यदि पिताजी मुझसे ये पाँच शालिकण मांगेंगे तो मैं किसी पल्य में से पांच शालिकण निकालकर दे दूंगी-उसने ऐसी संप्रेक्षा की संप्रेक्षा कर उन पाँच शालिकणों को एकान्त में फेंक दिया और अपने काम में लग गई। 1 11 ८. भोगवती का भी ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है-उसने शालिकणों को छीला ( निस्तुष किया) छीलकर निगल गई और अपने काम में लग गई। ९. रक्षिता का भी ऐसा ही वर्णन है। इतना विशेष है उसने शालिकम For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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