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नायाधम्मकहाओ
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एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे- परिवड्ढेमाणे जाव पुण्णमाचदे चाउरिचंदं पणिहाय पडिपुण्णे वण्णेणं जाव पडिपुणे मंडलेगं ॥
५. एवामेव समणाउसो! जो अहं निग्गंयो वा निग्गंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुडे भक्तिा अगाराओ अणगारिवं पव्वइए समाणे अहिए खंतीए एवं मुत्तीए गुत्तीए अज्जवेणं मद्दवेगं लाघवेणं सच्चेणं तवेणं चियाए अकिंचणयाए अहिए बंभचेरवासेणं ।
तयानंतर च णं अहिययराए खंतीए जाव अहिययराए बंभचेरवासेणं ।
एवं खलु एएणं कमेणं परिवड्ढेमाणे- परिवड्ढेमाणे पडिपुणे तीए जाव परिपुण्णे वंभचेरवासेणं ।
एवं खलु जीवा वर्द्धति वा हायति वा ।।
निक्खेव पदं
६. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स नायज्झयणस्स अयमद्वे पण्णत्ते ।
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वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा
जह चंदो तह साहू, राहुवरोहो जहा तह पमाओ । वण्णागुणगणो जह, तहा स्वमाइसमणधम्मो ॥१ ॥ पुण्णोवि पइदिणं जह, हायंतो सव्वहा ससी नस्से । तह पुण्णचरित्तो वि हु, कुसीलसंसग्गिमाईहिं ॥ २ ॥ जणिय माओ साहू, हायंतो पददिणं खमाईहिं । जावइ नद्वचरितो, ततो दुवस्वा पावेइ ॥ ३ ॥
गुणो वि हु होउ, सुहगुरुजोगाइ - जणियसंवेगो । पुण्णसरूवो जायइ, विवद्धमाणो ससहरोव्व ॥ ४ ॥
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दसवां अध्ययन : सूत्र ४-६
से अधिक यावत् मण्डल से अधिक प्रशस्त होता है ।
इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते...... यावत् पूर्णिमा का चन्द्र चतुर्दशी के चन्द्र की अपेक्षा वर्ण से प्रतिपूर्ण यावत् मण्डल से प्रतिपूर्ण होता है।
५. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्बन्ध अथवा निर्मान्धी आचार्य - उपाध्याय के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारता में ि होकर क्षान्ति से अधिक होता है, इसी प्रकार मुक्ति, गुप्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, तप, त्याग और अकिंचनता से अधिक होता है, ब्रह्मवास से अधिक होता है।
तदनन्तर वह क्षान्ति से अधिकतर होता है, यावत् ब्रह्मचर्यवास से अधिकतर होता है ।
इस क्रम से बढ़ते-बढ़ते वह शान्ति से प्रतिपूर्ण होता है, यावत् ब्रह्मचर्यवास से प्रतिपूर्ण होता है।
इस प्रकार जीव बढ़ते हैं यावत् हीन होते हैं ।
निक्षेप-पद
६. जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के दसवें अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है।
-- ऐसा मैं कहता हूँ ।
वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन-गाथा
१. चन्द्रमा के समान साधु हैं। राहु के अवरोध के समान प्रमाद है। वर्ण आदि गुण-समूह के समान क्षमा आदि भ्रमण धर्म है।
२. जैसे प्रतिपूर्ण चन्द्रमा भी प्रतिदिन हीन होते-होते सर्वथा नष्ट हो जाता है, वैसे ही चरित्र से प्रतिपूर्ण मुनि भी कुशील संसर्ग आदि कारणों से नष्ट हो जाता है।
३. प्रमादी साधु प्रतिदिन क्षमा आदि गुणों से हीन होता हुआ चरित्र से नष्ट हो जाता है और उससे दुःख आदि को प्राप्त करता है। ४. गुणों से हीन होते हुए भी सद्गुरु के योग से संवेग उत्पन्न हो जाने पर वह विवर्द्धमान चन्द्रमा की भांति पूर्ण स्वरूप वाला हो जाता है।
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