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________________ टिप्पण सूत्र-२३ ५. आलंकारिकसभा (आलंकारिकसभा) सौन्दर्य-प्रसाधन सभा (Beauty parlor) वृत्तिकार ने इसका अर्थ नापित कर्मशाला किया है।' सूत्र-३ १. परिपूर्ण (केवलकप्पं) अपना कार्य करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण अथवा परिपूर्ण ।' प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि दर्दुर देव परिपूर्ण जम्बू द्वीप को जानता, देखता है। स्थानांगवृत्ति में केवलकल्प के तीन अर्थ किए गए हैं-- १. अपना कार्य करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण। २. केवल ज्ञान की भांति परिपूर्ण। ३. समय के (आगम के) सांकेतिक शब्द के अनसार केवल कल्प अर्थात् परिपूर्ण। सूत्र-३० ६. शिलिका (सिलिया) शस्त्र को तीखा करने के लिए किरात (चिराईता), खदिर आदि तृण वृक्षों का प्रयोग किया जाता था। इसी प्रकार पत्थर का भी प्रयोग किया जाता था। सूत्र-५ २. कूटागार (कूडागार) विवरण हेतु द्रष्टव्य--भगवई खण्ड १. पृ. १९ सूत्र-२० ३. तालाचर कर्म (तालायरकम्म) तालाचर कर्म का अर्थ है नाट्य कर्म । इसका अर्थ अभिनय भी मिलता है।' सूत्र-३० ७. प्रस्तुत सूत्र में आयुर्वेद की पद्धति से की जाने वाली चिकित्सा का प्रतिपादन किया गया है। पंचकर्म की प्रक्रिया में स्नेहपान, वमन, विरेचन, स्वेदन, अनुवासन तथा निरुहवस्ति आदि करने का विधान है। उपलेपन आदि उस चिकित्सा के प्रयोग और साधन हैं-- १. उपलेपन--औषधियों का लेप। २. उद्वर्तन--उबटन ३. स्नेहपान--स्निग्ध द्रव्यों--घृत आदि को पकाकर पिलाना। ४. पुटपाक--औषधि द्रव्य के कल्प को भेषज्य विधि से पकाकर औषध तैयार करने की विधि। ५. विरेचन--अधो विरेचक । ६. स्वेदन--रोग की शान्ति के लिए सात प्रकार के धान्य की पोटली बांधना। ७. अपदहन--रोग प्रतिकार के लिए रुग्ण अंग पर डाम लगाना। ८. अपस्नान--शरीर की चिकनाई दूर करने वाले द्रव्यों से मिश्रित जल से स्नान करना। ९. अनुवासन--चर्मयन्त्र के प्रयोग से अपानमार्ग द्वारा जठर में तैल आदि का प्रवेशन। १०. वस्तिकर्म--चर्म वेष्टन प्रयोग से सिर आदि में स्नेहद्रव्य को भरना अथवा गुदा में बत्ती आदि लगाना। सूत्र २२ ४. व्याधितों, ग्लानों, रोगियों (वाहियाण-गिलाण-रोगियाण य) व्याधि--शारीरिक रोग। वृत्तिकार ने व्याधित का अर्थ विशिष्ट चैतसिक पीडायुक्त अर्थात् शोक आदि के कारण विक्षिप्तचित्त, मनोरोगी तथा वैकल्पिक अर्थ--विशिष्ट व्याधि--कुष्ठादि स्थिररोगों से पीड़ित किया है। ग्लान--अशक्त, जिनका हर्ष क्षीण हो चुका है। रोगी--ज्वर, कुष्ठ आदि रोगों से पीड़ित अथवा आशुघाती रोगों से पीड़ित। १. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७--केवल: परिपूर्ण: स चासौ कल्पश्च स्वकार्यकरण-समर्थः ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७--वाहियाणं ति व्याधितानां विशिष्टचित्तपीडावतां इति केवलकल्पः, केवल एव वा कल्प: केवलकल्पः । शोकादि-विप्लुतचित्तानामित्यर्थः अथवा--विशिष्टा आधिर्यस्मात् स २. स्थानांगवृत्ति, पत्र-५७--केवल:-- परिपूर्णः स चासौ स्वकार्यसामर्थ्यात् व्याधिः स्थिररोग: कुष्ठादिस्तद्वताम्। कल्पश्च केवलज्ञानमिव वा परिपूर्णतयेति केवलकल्पः, अथवा कल्पः ६. वही--ग्लानाना--क्षीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः । समयभाषया परिपूर्णः। ७. वही--रोगिताना-सञ्जातज्वरकुष्ठादिरोगाणामाशुधातिरोगाणां वा। ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-१८७-तालाचरकम ति प्रेक्षणककर्मविशेषः । ८. वही, पत्र-१८८--अलंकारियसहं ति--नापितकर्मशाला। ४. आप्टे ९. वही, पत्र-१९०--शिलिका:-किराततिक्तादितृणरूपाः प्रततपाषाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णीकरणाः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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