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प्रथम अध्ययन : सूत्र ४८-५०
किं पि ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय । तं भवियव्वं णं एत्थ कारणेणं । तं सेयं खलु ममं सेणियं रायं एयमहं पुच्छित्तए एवं सपेहेड, सपेहेता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी--तुब्भे णं ताओ! अण्णा ममं एज्जमानं पासिता आदाह परियाणह सक्कारेह सम्माह आलवह संलवह अद्धासणेण उवणिमतेह मत्ययसि अग्घायह । इयाणिं ताओ! तुब्भे ममं नो आढाह जाव नो मत्थयंसि अग्घायह किं पि ओहयमणसंकप्पा जाव नियायह। तं भवियव्वं णं ताओ! एत्य कारणेणं । तजो तुम्भे मम ताओ! एवं कारणं जगूहमाना असंकमाणा अनिण्हयमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसविद्धं एयम आइक्खह । तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि ।।
सेणियस्स चिंताकारणनिवेदण-पदं
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४९. तए णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वृत्ते समाणे अभयं कुमारं एवं क्यासी एवं खलु ता तव कुल्लमाउपाए धारिणीदेवीए तस्स गन्भस्त दोसु मासेसु अश्वकतेसु तद्वयमासे वट्टमाणे दोहतकालसमयसि अयमेयारूवे दोहले पाउभवित्वा-घण्णाओ गं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव वैभारगिरिकडगपायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमानीओ-आडिमाणीओ दोहलं विगिति । तं जणं अहमवि मेसु अब्भुग्गएसु जाव दोहलं विणिज्जामि ।
तए णं अहं पुत्ता धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य उवाएहि व जाव उप्पत्ति अविंदमाणे ओहयमणसंकष्ये जाव झियामि, तुमं आगयं पि न याणामि । तं एतेगं कारणेणं अहं पुत्ता! ओहयमणसंकप्पे जाव झियामि ।
अभयस्स आसासण-पदं
५०. तए णं से अभए कुमारे सेणियस्स रण्णो अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्ट - चित्तमाणंदिए जाव हरिसवस-विसप्पमाणहियए सेणियं राय एवं वयासी- मा णं तुब्भे ताओ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह। अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयेमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सद् ति कट्टु सेणियं रायं ताहिं इद्वाहिं कंताहिं पिपाहि मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहिं समासातेइ ।।
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नायाधम्मकहाओ
मनोज्ञ, मनोगत और उदार वागी से आताप संताप करते हैं, न अपने आधे आसन से निमंत्रित करते हैं, और न मेरा मस्तक सूंघते हैं। ये आज कुछ उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित हो रहे हैं। यहां कोई न कोई कारण होना चाहिये। अतः मेरे लिए श्रेय है, मैं राजा श्रेणिक से यह बात पूछूं--उसने ऐसी सप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर जहां राजा श्रेणिक था वहां आया । आकर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर 'जय-विजय' की ध्वनि से राजा श्रेणिक का वर्द्धापन किया। वर्द्धापन कर उसने इस प्रकार कहा - "तात! इससे पूर्व तुम मुझे आते हुए देखते तो मेरा आदर करते, मेरी ओर ध्यान देते, मुझे सत्कृत करते, सम्मानित करते, आलाप संलाप करते, अपने आधे आसन से निमन्त्रित करते और मेरा मस्तक सूंघते । आज तुम न मेरा आदर करते हो यावत् न मस्तक सूंघते हो। तुम कुछ उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित हो रहे हो । अतः तात! यहां कोई न कोई कारण होना चाहिए। इसलिए तात! उस कारण को बिना छिपाए बिना संकोच किए, बिना अपलाप किए, बिना आवरण डाले, यथाभूत, यथार्थ और असंदिग्ध बात मुझे कहो। तब मैं उस कारण के समाधान तक पहुंच
पाऊंगा।
श्रेणिक द्वारा चिन्ता कारण निवेदन पद
४९. कुमार अभय द्वारा ऐसा कहने पर राजा श्रेणिक ने उससे इस प्रकार कहा -- पुत्र! तुम्हारी छोटी मां धारिणी देवी को गर्भाधान किये जब दो माह बीत गये और तीसरा महीना चल रहा था, तब उसे दोहद काल के समय इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ-- “धन्य है वे माताएं यावत् जो वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ- घटाओं के उमड़ने पर यावत् अपना दोहद पूरा करूं।”
पुत्र! धारिणी देवी के इस अकाल - दोहद के सम्बन्ध में बहुत सारे आय और उपायों के द्वारा अनुचिन्तन करने यावत् उसके मूलस्रोत का पता न चलने पर उपहत मनः संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो रहा हूं । तुम्हारे आने का मुझे पता ही नहीं चला। पुत्र! उस दोहद के कारण मैं उपहत मनः संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो रहा हूं ।
अभय द्वारा आश्वासन पद
५०. राजा श्रेणिक से यह बात सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्त, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदय वाले कुमार अभय ने राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहा -- तात! तुम उपहत मनः संकल्प वाले यावत् चिन्तित मत बनो। मैं वैसा प्रयत्न करूंगा, जिससे मेरी छोटी मां धारिणी देवी के इस प्रकार के अकाल दोहद का मनोरथ पूरा होगा - इस प्रकार उसने राजा श्रेणिक को इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से आश्वस्त किया ।
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