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नायाधम्मकहाओ
१७ अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए--धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव वेभारगिरि-कडग-पायमूलं सव्वओ समंता आहिंडमाणीओ आहिंडमाणीओ दोहलं विणिति । तं जइ णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएस जाव दोहलं विणेज्जामि। ___तए णं अहं सामी! अयमेयारूवंसि अकालदोहसि अविणिज्जमाणंसि ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियामि।।
प्रथम अध्ययन : सूत्र ४५-४८ पर मेरे मन में अकाल-मेघ का दोहद उत्पन्न हुआ--"धन्य हैं वे माताएं, कृतार्थ हैं वे माताएं यावत् जो वैभारगिरि की मेखला और तलहटी में चारों ओर घूमती-घूमती अपना दोहद पूरा करती हैं। मैं भी इसी तरह मेघ-घटाओं के उमड़ने पर यावत् सुरम्य तलहटी में घूमती हुई, अपना दोहद पूरा करूं।"
स्वामिन्! मैं अपने इस प्रकार के अकाल दोहद की सम्पूर्ति न होने के कारण, रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न हो रही हूं।
सेणियस्स आसासण-पदं ४६. तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म धारिणिं देवि एवं वयासी--मा णं तुमं देवाणुप्पिए! ओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियाहि । अहं णं तह करिस्सामि जहा णं तुभं अयमेयारूवस्स अकाल-दोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइत्ति कटु धारिणिं देविं इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं वग्गूहि समासासेइ, समासासेत्ता जेणेव बाहिरया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहिय पारिणामियाहि य--चउन्विहाहिं बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणेअणुचिंतेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिइंवा उत्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ।।
श्रेणिक द्वारा आश्वासन-पद ४६. धारिणी देवी से यह बात सुनकर. अवधारण कर राजा श्रेणिक ने
धारिणी देवी को इस प्रकार कहा--देवानुप्रिये! तुम रुग्ण, रुग्ण शरीर वाली यावत् आर्तध्यान में डूबी हुई चिन्ता मग्न मत बनो। मैं वैसा प्रयत्न करूंगा, जिससे तुम्हारे इस अकाल दोहद का मनोरथ पूरा होगा। इस प्रकार उसने इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ और मनोगत वाणी से धारिणी देवी को सम्यक प्रकार से आश्वस्त किया। आश्वस्त कर जहां बाहरी सभा-मण्डप था, वहां आया। आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो, बैठ गया।
उसने धारिणी देवी के इस अकाल दोहद के सम्बन्ध में किये जाने वाले बहुत सारे आय और उपायों के विषय में औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी--इस चतुर्विध बुद्धि के द्वारा बार-बार अनुचिन्तन किया। जब राजा श्रेणिक को उस दोहद की पूर्ति के लिए किसी आय, उपाय, व्यवस्था-क्रम या उसके मूल स्रोत का पता नहीं चला, तब वह उपहत मन: संकल्प वाला यावत् चिन्तित हो गया।
अभयकुमारस्स सेणियं पइ चिंताकारणपुच्छा-पदं ४७. तयाणंतरं च णं अभए कुमारे ण्हाए कयबलिकम्मे कयकोउय
मंगल-पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए पायदए पहारेत्थ गमणाए।
कुमार अभय द्वारा श्रेणिक की चिन्ता का कारण पृच्छा-पद ४७. तदनन्तर कुमार अभय ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक-मंगल रूप
प्रायश्चित्त कर, सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो, पाद वन्दन __ के लिए (पिता के कक्ष में) जाने का संकल्प किया।
४८. तए णं से अभए कुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ
उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--अण्णया ममं सेणिए राया एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आढाइ परियाणइ सक्कारेइ सम्माणेइ (इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वग्गूहिँ?) आलवइ संलवइ अद्धासणेणं उवनिमंतेइ मत्थयंसि अग्घाइ । इयाणिं ममं सेणिए राया नो आढाइ नो परियाणइ नो सक्कारेइ नो सम्माणेइ नो इट्ठाहिं कताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं वागूहिं आलवइ संलवइ नो अद्धासणेणं उवनिमतेइ नो मत्थयंसि अग्घाइ,
४८. वह कुमार अभय जहां राजा श्रेणिक था, वहां आया। आकर उसने
राजा श्रेणिक को उपहत मन: संकल्प वाला यावत् चिन्तित देखा। यह देख, उसके मन में इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ “जब कभी राजा श्रेणिक मुझे आते हुए देखते हैं, देखते ही मुझे आदर देते हैं, मेरी ओर ध्यान देते हैं। मुझे सत्कृत और सम्मानित करते हैं। (इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोगत और उदार वाणी से) आलाप-संलाप करते हैं। अपने आधे आसन से मुझे निमंत्रित करते हैं। मेरा मस्तक सूंघते हैं। पर आज राजा श्रेणिक न मुझे आदर देते हैं, न मेरी ओर ध्यान देते हैं, न मुझे सत्कृत और सम्मानित करते हैं, न इष्ट, कमनीय, प्रिय
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