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दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र १९-२४
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नायाधम्मकहाओ विहार करते हुए, आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन में समवसृत हुए। जन-समूह ने निर्गमन किया यावत् पर्युपासना की।
२०. तए णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ट
तुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे तित्थगरे इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इह चेव आमलकप्पाए नयरीए अंबसालवणे अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए।
अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंध करेहि।
२०. भगवान के आगमन का संवाद प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली,
आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका, जहां माता-पिता थे, वहां आयी। वहां आकर जुड़ी हुई, सटे हुए दस नखों वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अंजली को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोली--माता-पिता! धर्म के आदिकर्ता, तीर्थकर, पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व यहां आये हैं। यहां संप्राप्त हैं। यहां समवसृत हैं और यहीं आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए विहार कर रहे हैं।
__ अत: माता-पिता! मैं तुमसे अनुज्ञा प्राप्त कर पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व को पाद-वन्दन करने के लिए जाना चाहती हूं।
'जैसा सुख हो देवानुप्रिय! प्रतिबन्ध मत करो।'
२१. तए णं सा काली दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुण्णाया समाणी
हट्ठ तुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसक्स- विसप्पमाणहियया व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्धाभरणलंकियसरीरा चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा ।।
२१. माता-पिता से अनुज्ञा प्राप्त कर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित,
प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने स्नान, बलिकर्म और कौतुक मंगल-रूप प्रायश्चित्त किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य प्रवर मंगल वस्त्र पहने। अल्पभार और बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। दासी समूह से परिवृत हो अपने घर से निकली। निकलकर जहां बाहरी सभा-मण्डप था, जहां प्रवर धार्मिक-यान था वहां आयी। वहां आकर वह उस प्रवर धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई।
२२. तए णं सा काली दारिया धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी ___ एवं जहा देवई तहा पज्जुवासइ।
२२. प्रवर धार्मिक यान पर आरूढ़ हुई उस काली बालिका ने देवकी की
भांति पर्युपासना की।
२३. तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालीए दारियाए तीसे य
महइमहालियाए परिसाए धम्म कहेइ।
२३. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व ने उस काली बालिका तथा उस उपस्थित
सुविशाल परिषद् को धर्म कहा।
२४. तए णं सा काली दारिया पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स
अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठवट्ठ-चित्तमाणदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस-विसप्पमाणहियया पासं अरहं पुरिसादाणीयं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी--सद्दहामि णं भंते! निग्गंथं पावयणं जाव से जहेयं तुब्भे वयह । जं नवरं-देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारियं पव्वयामि ।।
अहासुहं देवाणुप्पिए!
२४. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के पास धर्म को सुनकर, अवधारण कर,
हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन और परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व को तीन बार दायीं ओर से प्रदक्षिणा की। वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली--भन्ते! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर श्रद्धा करती हूं यावत् वह वैसा ही है जैसा तुम कह रहे हो। विशेष--देवानुप्रिय! मैं माता-पिता से पूछ लेती हूं उसके पश्चात् मैं देवानुप्रिय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित होऊंगी।
'जैसा सुख हो देवानुप्रिये!
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