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________________ नायाधम्मकहाओ ४०१ दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र २५-२७ २५. तए णं सा काली दारिया पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं एवं २५. पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के ऐसा कहने पर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से हरिसवस-विसप्पमाणहियया पासं अरहं वंदइ नमसइ, वंदित्ता विकस्वर हृदय वाली काली बालिका ने अर्हत पार्श्व को वन्दना की। नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता पासस्स नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर उसी धार्मिक यान पर आरूढ़ अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियाओ अंबसालवणाओ चेइयाओ हुई। आरूढ़ होकर पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व के पास से उठकर पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव आमलकप्पा नयरी तेणेव आम्रशालवन चैत्य से बाहर निकली। निकलकर जहां आमलकल्पा उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आमलकप्पं नयरिं मझमज्झेणं जेणेव नगरी थी वहां आयी। आकर आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच होकर बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवगच्छइ; उवागच्छित्ता धम्मियं जहां बाहरी सभा-मण्डप था वहां आयी। आकर प्रवर धार्मिक यान जाणप्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, को ठहराया। ठहराकर प्रवर धार्मिक यान से उतरी। उतरकर जहां पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मपियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता माता-पिता थे वहां आयी। वहां आकर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अंजली को मस्तक पर टिकाकर इस वयासी--एवं खलु अम्मयाओ! मए पासस्स अरहओ अंतिए धम्मे प्रकार बोली--'माता-पिता! मैंने अर्हत पार्श्व के पास धर्म को सूना है। निसंते। से विय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए। तए णं अहं वही धर्म मुझे इष्ट, ग्राह्य और रुचिकर है। माता-पिता! मैं संसार अम्मयाओ! संसारभउब्विग्गा भीया जम्मण-मरणाणं इच्छामि णं के भय से उद्विग्न हूं और जन्म-मृत्यु से भीत हूं अत: मैं तुमसे अनुज्ञा तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी पासस्स अरहओ अंतिए मुंडा भवित्ता प्राप्त कर अर्हत पार्श्व के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। प्रव्रजित होना चाहती हूं। अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं करेहि। 'जैसा सुख हो देवानुप्रिये! प्रतिबन्ध मत करो।' २६. तए णं से काले गाहावई विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं आमतेइ, आमतेत्ता तओ पच्छा हाए जाव विपुलेणं पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पुरओ कालिं दारियं सेयापीएहिं कलसेहि ण्हावेइ, व्हावेत्ता सव्वालंकार-विभूसियं करेइ, करेत्ता पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरूहेइ, दुरूहेत्ता मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणेणं सद्धिं संपरिबुडे सब्विड्डीए जाव दुंदुहिनिग्धोस-नाइयरवेणं आमलकप्पं नयरिं मामझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ताजेणेव अंबसालवणेचेइए तेणेव उवगच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठवेइ, ठवेत्ता कालिंदारियं सीयाओ पच्चोव्हेइ।। २६. 'काल' गृहपति ने विपुल, अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया। तैयार करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों को आमन्त्रित किया। आमन्त्रित कर स्नान कर यावत् विपुल पुष्प, वस्त्र, गन्ध, चूर्ण, माला और अंलकारों से उनको सत्कृत किया। सम्मानित किया। सत्कृत-सम्मानित कर उन्हीं मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के सामने बालिका काली को रजत और स्वर्ण-निर्मित कलशों से नहलाया। नहलाकर सब प्रकार के अंलकारों से विभूषित किया। विभूषित कर हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका पर आरूढ़ किया। आरूढ़ कर मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों के साथ उनसे संपरिवृत हो, सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि निर्घोष से निनादित स्वरों के साथ आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच होकर निकला। निकलकर जहां आम्रशालवन चैत्य था, वहां आया। वहां आकर तीर्थकर के छत्र आदि अतिशयों को देखा। देखकर शिविका को ठहराया। ठहराकर काली बालिका को शिविका से उतारा। २७. तए णं तं कालिं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे २७. काली बालिका के माता-पिता उस काली बालिका को आगे कर जहां अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता वर्वत नमसंति, पुरुषादानीय अर्हत पार्श्व थे, वहां आए। आकर वन्दना की। नमस्कार वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! काली किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले--देवानुप्रिय! यह काली दारिया अम्हं घूया इट्ठा कंता जाव उंबरपुप्फ पिव दुल्लहा बालिका हमारी पुत्री है। हमें इष्ट, कमनीय यावत् उदुम्बर के सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए? एस णं देवाणुप्पिया! पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो प्रश्न ही कहां है? Jain Education Intemational ucation Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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