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________________ प्रथम अध्ययन : टिप्पण ९०-९८ वृत्तिकार के अनुसार यहां अठारह देशीय भाषा का प्रयोग अठारह प्रकार की लिपि वर्णावलि के अर्थ में हुआ है। उस समय ये अठारह प्रकार की लिपियां प्रचलित थीं- १. हंसलिपि २ भूतलिपि ३ यक्षलिपि ४ राक्षसलिपि ५. ओड्रीलिपि ६ यावनीलिपि ७. तुरुकीलिपि ८. कौरिलिपिकीर देश की लिपि ९. द्राविद्धीलिपि १०. सैन्धवीलिपि ११. मातविनीलिपि १२. नाटीलिपि १३. नागरीलिपि १४. लाटीलिपि १५. पारसीलिपि १६. अनिभित्तिलिपि १७. चाणकीलिपि १८ मूलदेवीलिपि । ' सूत्र ८९ ९१. प्रासादावतंसक...... भवन (पासायावडिंसए..... भवणं ) प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि मेघ के माता-पिता विवाह से पूर्व मेघ के लिए आठ प्रासादावतंसक (प्रधान प्रासाद, सुन्दर प्रासाद) और एक भवन का निर्माण करवाते हैं। प्रासाद और भवन का अन्तर स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है - भवन की ऊँचाई आयाम की अपेक्षा कुछ कम होती है और प्रासाद की ऊँचाई आयाम की अपेक्षा दुगुनी होती है। इनमें दूसरा अन्तर यह भी है कि भवन एक भूमिक- एक मंजिल वाला होता है और प्रासाद एकाधिक मंजिल वाला होता है। सूत्र ९० ९२. करण (करण) करण तिथि का आधा कालमान होता है। तिथि के प्रारम्भ से तिथि की समाप्ति तक दो करण पूर्ण हो जाते हैं। करण ग्यारह होते हैं--बव, बालव, कोलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग, किंस्तुष्ण। प्रथम सात करण चर संज्ञक और शेष चार करण स्थिर संज्ञक हैं । " ९३. जलाभिषेक, मंगलकरण और आशीर्वाद के साथ) (ओक्यण-मंगल सुजपिएहिं ) । ओवराण वृतिकार ने इसका अर्थ प्रोंखनक किया है। इसका अर्थ उपलब्ध नहीं है। संभवतः इसका अर्थ प्रोक्षण होना चाहिए जिसका अर्थ है -- विवाह आदि के प्रसंग में किया जाने वाला जल सिंचन । ' मंगल-दधि, अक्षत आदि वृतिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ मंगल गान भी किया है। 1 सुजल्पित-- आशीर्वाद । ७ ८० १. समवाओ १८/५ का टिप्पण पृष्ठ १०७ से १०९ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र-४६-भवनमायामाया किञ्चन्यूनोच्छ्रायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति । ३. अनगार धर्मामृतवर्षिणी टीका, पृष्ठ २७९ -- एकभूमिकं भवनं, द्वित्रिभूमादिः प्रासादः ४. ज्योतिष प्रवेशिका, पृ. २२ Jain Education International सूत्र ९१ ९४. प्रीतिदान (पीइदाण) हर्षप्रद घटना के समय अथवा उत्सव आदि की सूचना देने वाले को दिया जाने वाला दान । सूत्र ९६ ९५. उग्र, भोज (जग्गा भोगा ) नायाधम्मकहाओ भगवान ऋषभ के द्वारा उग्र, भोज आदि वंश स्थापित किए गए थे । वृत्तिकार के अनुसार उग्र का अर्थ रक्षा करने वाला तथा भोज का अर्थ गुरुवंशज है। शान्त्याचार्य ने उग्र का अर्थ आरक्षक तथा भोग का अर्थ 'गुरुस्थानीय ' किया है।" ९६. रुद्र, शिव.........( रुद्द - सिव ) उस समय देव पूजा और प्रकृति पूजा का भी पर्याप्त प्रचलन था । समय-समय पर जैसे इन्द्र, स्कन्द आदि देवों से संबंधित उत्सव मनाए जाते थे, वैसे ही नदी, तालाब, वृक्ष, चैत्य और पर्वतों का उत्सव मनाया जाता था और उद्यान यात्राएं एवं गिरियात्राएं की जाती थीं। सूत्र ९९ ९७. चारण (चारणे) विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६/२१ का टिप्पण पृष्ठ ६९१-९२ ९८. पांच प्रकार के अभिगमों से (पंचविण अभिगमेणं) कुमार मेघ पांच अभिगम पूर्वक श्रमण भगवान महावीर के पास जाता है। वे पांच अभिगम ये हैं- १. सचित द्रव्यों का व्युत्सर्जन । २. अचित्त द्रव्यों का अव्युत्सर्जन । ३. एक शाटिक उत्तरीय का विन्यासकरण । ४. तीर्थंकर या गुरु को देखते ही अंजलिकरण ५. मन का एकाग्रीकरण । यहां दूसरे अभिगम का अर्थ आलोच्य है उक्त अर्थ का आधारभूत मूलपाठ इस प्रकार है--१. सचित्तागं दव्याणं विउसरणपाए और २. अचित्तागं दव्वाणं अविउसरणयाए ? पाठ को देखते हुए उक्त अर्थ संगत हो सकता है । वृत्तिकार ने भी दूसरे पद का मूल अर्थ यही किया है- अचित द्रव्यों का व्युत्सर्जन न करना। प्रश्न होता है, भगवद् ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ४७- अवपदनं प्रोङ्खनकम् । ६. वही - - दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा । ७. वही - आशीर्वचनानीति । ८. ज्ञातावृत्ति, पत्र- ४९ ९. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पत्र - ४१७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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