SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नायाधम्मकहाओ ८१ वंदन के लिए जाते समय जैसे सचित्त द्रव्यों का परिहार अनिवार्य होता है, क्या उस समय सभी प्रकार के अचित्त द्रव्यों का रखना विहित है? इसका समाधान वृत्तिकार द्वारा स्वीकृत वैकल्पिक पाठ के आधार पर मिल सकता है। वह वैकल्पिक अर्थ है--अचित्त द्रव्य छत्र चामर आदि का भी विसर्जन । वृत्तिकार लिखते हैं-क्वचिद् वियोसरयेति पाठः तत्र अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन परिहारेण उक्तं च- अवणेइ पंच ककुहाणि, रायवरबसभचिंधभूयाणि । छत्तं खम्गोवाहण मउ तह चामराओ य ।। यह अर्थ मौलिक और संगत लगता है। लगता है मूल पाठ की अशुद्धि के कारण कुछ भ्रांति हुई है और इसीलिए अचित्त द्रव्यों का अविसर्जन यह अर्थ किया गया है। शुद्ध पाठ होना चाहिए 'अचित्ताणं दव्वाणं अ विउसरणयाए' 'अ' निषेधार्थक नहीं है। यह 'च' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्राकृत में व्यंजन का लोप होने से 'स्वर' शेष रहता है। यहां च का अर्थ 'और' नहीं इसका अर्थ 'भी' है अपि के अर्थ 'च' का प्रयोग होता है। 'विउसरणाए के साथ 'अ' छप जाने से यह भ्रान्ति हुई है। अत: दूसरे अभिगम का अर्थ होना चाहिए अचित्त द्रव्यों का भी विसर्जन । भगवान के दर्शनार्थ जाते समय जैसे सचित्त पुरुष मालाएं आदि त्यागी जाती थी वैसे ही राजा लोग राजसी परिधान -- छत्र, चामर आदि भी समवसरण के बाहर ही उतारकर जाते थे । वैदिक परम्परा में भी यह अर्थ सम्मत था। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी उल्लेख है विनीतवेषेण प्रवेष्टव्यानि तपोवनानि । विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य........ .. भगवई खण्ड १, पृष्ठ २९१७. सूत्र १०५ ९९. (सूत्र १०५ ) प्रस्तुत सूत्र में मानसिक आवेगों से शरीर पर होने वाले प्रभावों का मार्मिक चित्रण है। यह मनोकायिक रोगों के विश्लेषण का पुष्ट आधार बनता है। सूत्र १०६ १००. उत्क्षेपक तालवृन्त और वीजनक (उक्लेक्य-तालविंट - वीणग) ये प्राचीनकाल में प्रचलित पंसे थे। इनमें आकृति गत भेद है-१. उत्क्षेपक -- बांस से निर्मित्त पंखा, उसके मध्य में छोटा डंडा होता है, उसे मुड़ी में पकड़ कर हवा शलते हैं। २. तालवृन्त--ताड़ के पत्तों से बना हुआ पंखा अथवा तालवृन्त की आकृति वाला चर्ममय पंखा । १. भातावृत्ति पत्र ५० २. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ३. ज्ञातावृत्ति, पत्र-५२--उत्क्षेपको वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो दण्डमध्यभागः, तालवृन्तंतालाभिधानवृक्षपत्र - वृन्तं पत्तछोटन इत्यर्थः तदाकारं वा चर्ममयं वीजनकं तु वंशादिमय-मेवान्तर्ग्राह्यदण्डम् । Jain Education International प्रथम अध्ययन : टिप्पण ९८-१०४ ३. वीजनक- जिसके मध्य में दण्ड लगा हुआ है वह चर्ममय पंखा १०१. उदुम्बर के पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो (उंबरपुष्कं व दुल्लह सवणयाए) उदुम्बर का अर्थ है- गूलर का पेड़ -- क्षीरवृक्ष हेमदुग्ध और सदाफल ये इसके पर्यायवाची नाम है। शब्द कल्पद्रुम में इसके गुण निष्पन्न अठारह नामों का उल्लेख है।' उसके अनुसार उसकी छाल शीतल होती है और वह पुष्पशून्य होता है। प्रस्तुत सूत्र में उदुम्बर पुष्प की भांति दुर्लभता का जो उल्लेख है। उसका तात्पर्य यही है कि जैसे उदुम्बर का फूल अलभ्य है वैसे ही मां की दृष्टि में मेघ जैसा पुत्र अन्यत्र दुर्लभ है। सूत्र ११० १०२. सातवीं पीढ़ी तक (आसत्तमाओ कुलवंसाओ) प्राचीनकाल में सम्पदा की प्रचुरता की एक कसौटी मानी जाती थी- जो सम्पदा सात पीढ़ी तक पर्याप्त हो। उसका अपना महत्त्व था। जिसके पास इतनी सम्पदा होती थी, वह व्यक्ति सम्पन्न माना जाता इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में 'अलाहि जाव आसत्तमात्र कुलवंसाओं का प्रयोग मिलता है। सूत्र ११२ १०३. सांप की भांति एकान्त दृष्टि (अतीव एतदिट्ठीए) सर्प अपने लक्ष्य पर अत्यन्त निश्चल दृष्टि रखता है। यही कारण है कि उसके द्वारा देखे जाने वाले पदार्थ का उसमें स्थिर प्रतिबिम्ब पड़ता है। वह प्रतिबिम्ब वर्षों तक भी अमिट रहता है। इसी प्रकार साधु को भी अपने लक्ष्य / चारित्राराधना पर निश्चल दृष्टि रहना होता है। १०४. दुर्भिक्षभक्त, कान्तार-भक्त, वालिका भक्त, और ग्लान भक्त (दुभिक्खभत्ते वा कंतारभत्ते वा वद्दलिया भत्ते वा गिलाण - भत्ते वा ) निशीथ चूर्णि और स्थानांग वृत्ति में इनकी बहुत सुन्दर व्याख्या प्राप्त होती है। १. दुर्भिक्ष भक्त -- भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति भक्त पान तैयार कर देते थे। वह दुर्भिक्ष भक्त कहलाता था। २. कान्तार भक्त -- प्राचीनकाल में भिक्षुओं का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था । कभी वे अटवी में साधु पर दया करके उसके लिए भोजन बनाकर दे देते थे । इसे कान्तार भक्त कहा जाता था। ४. अभिधानचिन्तामणि ४/१९८-- उदुम्बरो जन्तुफलो मशकी हेमदुग्धकः । ५. शब्दकल्पद्रुम १, पृष्ठ २३९ ६. निशीथ भाष्य, भाग ३, पृष्ठ ४५५ दुभिखे राया देतितं दुब्भिक्खभत्तं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy