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________________ नायाधम्मकहाओ जहां जल मार्ग से माल आता हो वह जल-पत्तन और जहां स्थल मार्ग से माल आता हो वह स्थल-पत्तन है। संवाह--जिस गिरिदुर्ग आदि पर धान को ढोकर ले जाया जाता प्रथम अध्ययन : टिप्पण १०४-१०७ ३. वालिका भक्त--आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते । यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषत: जो भोजन तैयार करते, वह वालिका भक्त कहलाता था। ४. ग्लान भक्त--इसके तीन अर्थ हैं-- १. आरोग्यशाला (अस्पताल) में दिया जाने वाला भोजन। २. आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यत: रोगी को दिया जाने वाला भोजन । ३. रोग उपशमन के लिए दिया जाने वाला भोजन ।' सूत्र ११३ १०५. (सूत्र ११३) प्रस्तुत सूत्र में दो शब्द विमर्शनीय हैं इहलोक और परलोक। सूत्रकार के अनुसार जो व्यक्ति मात्र वर्तमान जीवन में पौद्गलिक सुखों से प्रतिबद्ध होता है और पारलौकिक हित से निरपेक्ष रहता है. उसके लिए निर्ग्रन्थ-प्रवचन दुरनुचर है। सूत्र ११८ १०६. सब प्रकार के उदक, सब प्रकार की मिट्टी (सव्वोदएहिं, सव्वमट्टियाहिं) यहां सर्वोदक का अर्थ है--समस्त तीर्थों में उपलब्ध होने वाला जल। सर्व मृत्तिका का अर्थ है--सब तीर्थ क्षेत्रों की मिट्टी। सन्निवेश--सार्थ आदि के ठहरने का स्थान ।। दि जैनिस्ट स्टडीज में उल्लिखित इनकी व्याख्या मननीय होने के साथ-साथ मनोरंजक भी है। १. ग्राम--जहां साधु भिक्षा के लिए गमन करते हैं। जो गुणों को ग्रसता है। जहां अठारह प्रकार के कर लगते हैं अथवा कांटों की बाड़ से आवृत जन-निवास। ___ जहां केवल विप्र और विप्रभृत्य रहते हैं, वह गांव है, अथवा जहां केवल शुद्र ही रहते हैं, वह गांव है। २. नगर--जहां किसी प्रकार का कर नहीं लगता। जिसके चारों ओर विशाल गोपुर हों और जो शोभन हो। नगर की पहचान-देवमन्दिरों, विचित्र प्रकार के प्रासादों, बाजारों, मकानों और शोभन राजमार्गों द्वारा होती है। ३. खेड--धूलि के प्राकार से घिरा हुआ, चारों ओर से नदी अथवा पर्वत से घिरा हुआ, पुर की अपेक्षा जिसका विस्तार आधा हो। किसानों का गांव। ४. कर्बट--चारों गांव के मध्य स्थित गांव कर्बट है। दो सौ गांव के मध्य स्थित कावटिका और सौ गांव के मध्य स्थित गांव को काव कहते हैं। जिसके एक ओर गांव हो और दूसरी ओर नगर, उन दोनों को जो मिला जुला भाग है, वह कर्बट है, जो पर्वत या नदी से घिरा हुआ हो वह कर्बट है। ५. मडम्ब--जिसके चारों ओर ढाई योजन तक कोई गांव न हो, जिसके चारों ओर अर्ध योजन तक गांव हो, जिसके चारों ओर आस-पास में कोई दूसरा गांव, नगर आदि न हो, जो चारों ओर से जनाश्रय शून्य हो। ६. पत्तन--जहां सब दिशाओं से लोग आते हो, जहां रत्नों की खाने हों। पत्तन दो प्रकार के होते हैं--जलमध्यवर्ती, स्थलमध्यवर्ती। जहां रत्न उत्पन्न होते हों। जो शकट और नौकाओं से गम्य हो, घाटयुक्त हो, वह पत्तन और जो केवल नौकाओं द्वारा ही गम्य हो वह पट्टन कहलाता है। जहां जल या स्थल पथ में से किसी एक द्वारा प्रवेश-निर्गम हो। ७. द्रोणमुख--द्रोण नाम के समुद्र की वेला से घिरा हुआ। जहां जल आर स्थल दाना स प्रवश आर निगम हा, जस--भगुकच्छ, भड़ाच आद। १०७. ग्राम, आकर......सन्निवेशों (गामागर......सण्णिवेसाणं) यहां ग्राम, आकर से लेकर सन्निवेश तक के १२ शब्दों का अर्थ ज्ञातव्य है। ग्राम--जो कर आदि से गम्य हो, जहां टेक्स लगती हो। आकर--लवण आदि की उत्पत्ति भूमि। नगर--जहां कर नहीं लगता। खेट--जिसके चारों ओर रेत का प्राकार हो। कर्बट--कुनगर। द्रोणमुख--वह व्यापारिक क्षेत्र जहां जल और स्थल--दोनों मार्गों से माल आता हो। मडम्ब--जिसके चारों ओर एक-एक योजन तक कोई गांव आदि न हो। पत्तन--पत्तन दो प्रकार के होते हैं--जल पत्तन और स्थल पत्तन। १. स्थानांग वृत्ति, पत्र-४४३--वलिका-मेघाऽम्बरं तत्र हि वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकुलो भवतीति गृही तदर्थं विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । २. निशीथ भाष्य, भाग ३, पृष्ठ ४५५--आरोग्गसालाउ वा चिणावि आरोग्गसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभक्तं । ३. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र-४४३ रोगोपशान्तये यद्ददाति । (ख) ज्ञातावृत्ति, पत्र-५६ ४. वही, पत्र-५९--सर्वोदकैः सर्वतीर्थसम्भवैः एवं मृत्तिकाभिरिति । ५. ज्ञातावृत्ति, पत्र-६०--करादिगम्यो ग्राम:, आकरो लवणाद्युत्पत्तिभूमि:, अविद्यमानकर-नगर, धूली प्राकारं-खेटं, कुनगरं-कर्बट, यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद्बोणमुखं । यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्मडम्बं, पत्तनं द्विधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यत्र तु स्थलेन तत्स्थलपत्तनं, यत्र पर्वतादि दुर्गे लोकधान्यानि संवहन्ति स संवाहः, सार्थादिस्थानं सन्निवेशः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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