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प्रथम अध्ययन : सूत्र २९-३१
मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गब्भ वक्कममाणंसि एएसिं चोद्दसण्हं महासुमिणाणं अण्णयरं महासुमिणं पासित्ता गं पडिबुज्झंति।
इमे य सामी! धारिणीए देवीए एगे महासुमिणे दिटे, तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्गतुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे । अत्थलाभो सामी! पुत्तलाभो सामी! रज्जलाभो सामी! भोगलाभो सामी! सोक्खलाभो सामी! एवं खलु सामी! धारिणी देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपण्णाणं जाव दारगं पयाहिइ। से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमित्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कते वित्थिण्ण-विपुल-बलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा ।
तं उराले णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्लकारए णं सामी! धारिणीए देवीए सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुव्हेंति ।।
नायाधम्मकहाओ माण्डलिक राजा की माता माण्डलिक राजा के गर्भावक्रान्ति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है।
स्वामिन्! इन महास्वप्नों में धारिणी देवी ने एक हाथी का महास्वप्न देखा है। इसलिए स्वामिन्! धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् स्वामिन्! धारिणी देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण तथा मंगलकारी स्वप्न देखा है। स्वामिन्! अर्थलाभ होगा। स्वामिन! पुत्रलाभ होगा। स्वामिन्! राज्यलाभ होगा। स्वामिन्! भोगलाभ होगा। स्वामिन्! सुखलाभ होगा।
इस प्रकार स्वामिन्! धारिणी देवी बहुप्रतिपूर्ण नौ मास बीतने पर यावत् (१-१-२०) एक सुरूप बालक को जन्म देगी।
वह बालक बाल्यावस्था को पार कर, विज्ञ और कला का पारगामी बनकर, यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रान्त, विपुल-विस्तीर्ण सेना और वाहन युक्त राज्य का अधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा।
इसलिए स्वामिन्! (हमारा अभिमत प्रामाणिक है कि) धारिणी देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् स्वामिन्! धारिणी देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगल कारक स्वप्न देखा है--ऐसा कह, उन्होंने पुन: पुन: राजा के उल्लास का संवर्द्धन किया।
सुमिणपाढग-विसज्जण-पदं ३०. तए णं से सेणिए राया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयम₹
सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ-चित्तमाणंदिए जाव हरिसवस- विसप्पमाणहियए करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--एवमेयं देवाणुप्पिया! जाव जं णं तुब्भे वयह त्ति कटु तं सुमिणं सम्म पडिच्छइ, ते सुमिणपाढए विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति, दलइत्ता पडिविसज्जेइ।
स्वप्नपाठक-विसर्जन-पद ३०. उन स्वप्न पाठकों से यह अर्थ सुनकर-अवधारण कर हृष्ट तुष्ट
चित्तवाला, आनन्दित यावत् हर्ष से विकस्वर हृदयवाला राजा श्रेणिक दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकार इस प्रकार बोला--ऐसा ही है देवानुप्रियो! यावत् जो तुम कह रहे हो--ऐसा कहकर यावत् उसने स्वप्न को भली भांति स्वीकार किया। उन स्वप्नपाठकों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, गन्ध और माल्यालंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर जीवन निर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया, प्रीतिदान देकर प्रतिविसर्जित किया।
सेणियस्स सुमिणपसंसा-पदं ३१. तए णं से सेणिए राया सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुढेत्ता जेणेव
धारिणी देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धारिणिं देविं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिए! सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा तीसं महासुमिणा--बावत्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा जाव तं उराले णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । कल्लाणे णं तुमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिटे । सिवे धण्णे मंगल्ले सस्सिरीए णं तमे देवाणुप्पिए! सुमिणे दिढे । आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउय-कल्लाण-मंगल्ल-कारए णं तुमे देवि! सुमिणे दिढे त्ति कटु भुज्जो-भुज्जो अणुवूहेइ ।।
श्रेणिक द्वारा स्वप्न-प्रशंसा-पद ३१. तब राजा श्रेणिक सिंहासन से उठा, उठकर जहां धारिणी देवी थी, वहां
आया, आकर धारिणी देवी से इस प्रकार बोला--देवानुप्रिये! स्वप्न शास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न--इस प्रकार बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं, यावत् देवानुप्रिये! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने कल्याणक स्वप्न देखा है। देवानुप्रिये! तुमने शिव, धन्य, मंगलमय और श्रीसम्पन्न स्वप्न देखा है। देवी! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है--ऐसा कह, उसने पुन:-पुन: धारिणी देवी के उल्लास का संवर्द्धन किया।
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