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नायाधम्मकहाओ
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कप्पर देवाणुप्पिए समणीणं निम्मयोगं सरीरबाउसियाणं होतए । तुमं च णं देवाणुपाएं सरीरबाउसिया जाया अभिक्खणं-अभिक्खणं हत्थे धोवसि, पाए धोवसि, सीसं घोवसि, मुहं धोवसि, धणंतराणि धोवसि, कक्संतराणि धोवसि, गुज्यांतराणि धोवसि, जत्य जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएसि, तं पुम्वामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयसि वा सयसि वा । तं तुमं देवाणुप्पिए! एयरस ठाणस्स आलोएहि जाय पायच्छितं परिवज्जाहि ।।
३६. तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए अज्जाए एयमट्ठे नो आढाइ नो परियाणा तुसिणीया संचिठ्ठद ।।
३७. तए गं ताओ पुष्कचूताओ अज्जाओ कालिं अजं अभिक्लणं- अभिक्लणं होलेति निंदतिं खिंसति गरहात अवमन्नति अभिक्खणं- अभिक्खणं एयमट्टं निवारेंति ।।
कालीए पढोविहार पदं
३८. तए णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं निग्गंधीहिं अभिक्खणंअभिक्खणं हीलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - जया अहं अगारमज्झे वसित्या तया णं अहं सयंवसा, जप्पभिदं च अहं मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया तप्पभिदं च णं अहं परवसा जाया । तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पाडिक्कयं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए त्ति कट्टु एवं सपेहेइ, सपेहेता कल्लं पाउप्पभायाए रखणीए उड्डियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते पाडिवकं उवस्सयं गेहइ । तत्य णं अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ पाए धोवेद, सीसं धोवे, मुहं धोवेद, षणंतराणि धोवेद, कक्वंतराणि धोवेद, गुज्जांतराणि धोवेद, जत्यजत्य वि यणं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तं पुण्यामेव अब्भुक्खित्ता तओ पच्छा आसयइ वा सयइ वा ।।
कालीए मच्चु-पदं
३९. तए णं सा काली अज्जा पासत्था पासत्यविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी महाछंदा अहाछंदविहारी संसत्ता संसत्तविहारी बहूनि वासागि सामण्णपरियागं पाउण पाणित्ता अद्धमाखियाए संतेहणाए अप्पाणं झूले झूसेत्ता तीसं भत्ताई अगसनाए छेएड, एता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणीए कालिवडिंसए भवणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि देवदूतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेसाए ओगाहणाए कालीदेवित्ताए उबवण्णा ।।
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दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ३५-३९
श्रमणियों निग्रन्थिकाओं को शरीर बाकुशिक होना नहीं कल्पता और देवानुप्रिये! तुम तो शरीर बाकुशिक बन गई हो। तुम बार-बार हाथ धोती हो, पांव धोती हो, सिर धोती हो, मुंह धोती हो, स्तनान्तर धोती हो, कक्षान्तर धोती हो, गुह्यान्तर धोती हो और जहां-जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती हो उस भूमि को पहले धोकर उसके पश्चात् बैठती हो अथवा सोती हो। इसलिए देवानुप्रिये! तुम इस स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त स्वीकार करो ।
३६. काली आर्या ने आर्या पुष्पचूला के इस अर्थ को न आदर दिया और न उसकी बात पर ध्यान दिया। वह मौन रही ।
३७. उस आर्या पुष्णचूला ने काली आर्या की पुनः पुनः अवहेलना की निंदा की, कुत्सा की, गर्हा की, अवमानना की और पुनः पुनः उसे इस कार्य से रोका।
काली का पृथक विहार-पद
३८. इस प्रकार श्रमणियो! निर्ग्रन्थिकाओं द्वारा पुनः पुनः अवहेलना किये जाने पर यावत् रोके जाने पर काली आर्या के मन में इस प्रकार का आन्तरिक चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ 'जब मैं अगारवास में थी, तब स्वतन्त्र थी और जिस समय से मैं मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रव्रजित हुई हूं उस समय से मैं परतन्त्र हो गई हूं। अत: मेरे लिए उचित है मैं उषाकाल में पौ फटने यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर पृथक् उपाश्रय को स्वीकार कर विहार करूं । उसने ऐसी प्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर उषाकाल में, पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर आ जाने पर उसने पृथक उपाश्रय में आश्रय लिया। बिना किसी रोक-टोक के स्वतन्त्रता पूर्वक पुनः पुनः हाथ धोती, पांव धोती, सिर धोती, मुंह धोती, स्तनान्तर धोती, कक्षान्तर धोती, गुह्यान्तर धोती और जहां जहां भी स्थान, शय्या अथवा निषद्या करती उस भूमि को पहले ही पानी से धोकर उसके पश्चात् बैठती अथवा सोती ।
काली का मृत्यु - पद
३९. उस काली आर्या ने पार्श्वस्था, पार्श्वस्थ - विहारिणी, अवसन्ना, अवसन्न- विहारिणी कुशीला, कुशील विहारिणी, यथाछन्दा, यथाछन्द-विहारिणी, संसक्ता और संसक्तविहारिणी होकर बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर पाक्षिक संलेखना की आराधना में स्वयं को समर्पित किया। समर्पित कर अनशन काल में तीस भक्तों का परित्याग किया। परित्याग कर अन्तिम समय में उस (प्रमाद) स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना मृत्यु के समय मृत्यु को प्राप्त कर वह चमरचञ्चा राजधानी कालीवतंसक
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