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नायाधम्मकहाओ
दूसरा श्रुतस्कन्ध, प्रथम वर्ग : सूत्र ११-१३ कालीए भगवओ वंदण-पदं ११. एत्थ समणं भगवं महावीरं ज़ुबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठवट्ठ-चित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवस-विसप्पमाण-हियया सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुटेता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइ, ओमुइत्ता तित्थगराभिमुही सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणुं धरणियलंसि निहटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलसि निवेसेइ, ईसिं पच्चुन्नमइ, पच्चुन्नमित्ता कडग-तुडिय-यंभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी--नमोत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जंठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव सिद्धिगइनामघेजं ठाणं संपाविउकामस्स । वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगया, पासउ मे समणे भगवं महावीरे तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहा निसण्णा।
काली द्वारा भगवान को वन्दन-पद ११. उसने जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष राजगृह नगर और गुणशिलक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर, संयम और तप से स्वयं को भावित करते हुए श्रमण भगवान महावीर को देखा। देखकर हृष्ट तुष्ट चित्त वाली, आनन्दित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली वह (काली देवी) सिंहासन से उठी। उठकर पादपीठ से नीचे उतरी, उतरकर पादुकाएं उतारी। उतारकर तीर्थकर के अभिमुख हो सात-आठ पग आगे बढ़ी। आगे बढ़कर बाएं घुटने को ऊपर उठाया। उठाकर दाएं घुटने को धरती पर टिकाया। मस्तक को तीन बार भूतल पर लगाया। पुन: थोड़ी ऊपर उठी। उठकर कड़े और बाजूबन्धों से स्तम्भित भुजाओं को संकुचित किया। संकुचित कर फिर जुड़ी हुई सटे हुए दस नखों वाली सिर पर प्रदक्षिणा करती अञ्जली को मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोली--'नमस्कार हो, धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त अर्हत भगवान को। नमस्कार हो, धर्म के आदिकर्ता यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को संप्राप्त करने वाले श्रमण भगवान महावीर को। ___मैं यहीं से तत्रस्थित भगवान को वंदना करती हूं। श्रमण भगवान महावीर वहीं से यहां स्थित मुझको देखें-ऐसा कहकर उसने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर वह प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गई।
१२. तए णं तीसे कालीए देवीए इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए
मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--सेयं खलु मे समणं भगवं महावीर वंदित्तए नमंसित्तए सक्कारित्तए सम्माणित्तए कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासित्तए त्ति कटु एवं सपेहेइ, सपेहेत्ता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे विहरइ एवं जहा सूरियाभो तहेव आणत्तियं देइ जाव दिव्वंसुरवराभिगमणजोग्गं करेह य कारकेह य करेत्ता कारक्ता य खिप्पामेव एवमाणत्तियं पच्चप्पिणह । ते वि तहेव करेत्ता जाव पच्चप्पिणंति, नवरं--जोयणसहस्सवित्थिण्णं जाणं । सेसं तहेव। तहेव नामगोयं साहेइ, तहेव नट्टविहिं उवदंसेइ जाव पडिगया।
१२. उस काली देवी के मन में यह इस प्रकार का आन्तरिक, चिन्तित,
अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ--मेरे लिए उचित है मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करूं, नमस्कार करूं, उनका सत्कार करूं, सम्मान करूं। वे कल्याणकारी, मंगलमय, धर्मदेव और ज्ञानमय हैं। अत: उनकी पर्युपासना करूं--उसने ऐसी संप्रेक्षा की। सप्रेक्षा कर आभियोगिक देवों को बुलाया। उन्हें बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर विहार कर रहे हैं, इस प्रकार सूर्याभ की भांति आज्ञप्ति दी यावत् कहा--देवों के अभिगमन योग्य दिव्य विमान आदि प्रस्तुत करो और करवाओ। ऐसा कर शीघ्र ही इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने भी वैसा ही किया यावत् आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। विशेष--उसका यान हजार योजन विस्तीर्ण था। शेष सूर्याभ के समान । वैसे ही नाम-गोत्र बताए। वैसे ही नाट्यविधि का प्रदर्शन किया यावत् लौट आयी।
गोयमस्स पसिण-पदं १३. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ,
वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-कालीए णं भंते! देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभाए कहिं गए? कहिं अणुप्पविट्ठे?
गोयमा! सरीरं गए सरीरं अणुप्पवितु। कूडागारसाला दिलुतो।
गौतम का प्रश्न-पद १३. भन्ते! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की,
नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले--भन्ते! काली देवी की यह दिव्य देवर्द्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देव-प्रभाव कहां चला गया? कहां अनुप्रविष्ट हो गया?
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