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अध्ययन
द्रव्य की अपेक्षा जीव अनन्त हैं। प्रदेश परिमाण की दृष्टि से प्रत्येक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। इन दोनों दृष्टियों से जीव न घटते हैं और न बढ़ते हैं फिर भी प्राचीनकाल से जीव की वृद्धि और हानि का प्रश्न पूछा जाता रहा है। प्रस्तुत का प्रारम्भ भी गौतम के इसी प्रश्न से हुआ है।' गुणों की अपेक्षा जीव की वृद्धि भी होती है और हानि भी चन्द्रमा के रूपक से साधनागत हानि एवं वृद्धि का निरूपण किया गया है इसलिए प्रस्तुत अध्ययन का नाम चन्दिमा (चन्द्रमा) रखा गया।
व्यक्ति के उत्थान और पतन में कर्म के उदय और परिस्थिति दोनों की ही अपनी भूमिका है। वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने व्यक्ति के अपकर्ष के चार कारण बतलाए हैं-
१. कुशील व्यक्तियों का संसर्ग ।
२. सद्गुरु की उपासना का अभाव ।
३. प्रतिदिन प्रमाद का आसेवन।
आमुख
४. चारित्र मोहनीय कर्म का उदय । २
उपर्युक्त कारणों से साधक के क्षान्ति आदि गुणों की क्रमशः हानि होती जाती है फलतः वह कृष्णपक्ष के चन्द्रमा के समान घटता चला जाता है जो साधक कुशील संसर्ग, प्रमाद आदि का परिवर्जन करता है उसके क्षान्ति आदि गुणों का विकास होता है। फलत: विकास को प्राप्त करता हुआ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान पूर्णता को प्राप्त कर लेता है ।
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साधनागत ह्रास - विकास का निरूपण करने के लिए प्रस्तुत रूपक अत्यन्त सरस एवं समीचीन है, विषयवस्तु को सम्यक् प्रकार से स्पष्ट करने वाला है।
१. नायाधम्मकहाओ १/१०/२ २. ज्ञातावृत्ति, पत्र- १७८
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