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________________ ३३९ नायाधम्मकहाओ वासाओ हत्थिणाउराओ नयराओ जहिट्ठिलस्स रणो भवणाओ साहरिया। तं मा णं तुम देवाणुप्पिया! ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि । तमंणं मए सद्धिं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहराहि ।। सोलहवां अध्ययन : सूत्र २०८-२१३ देवानुप्रिये! इस प्रकार मेरे पूर्वसांगतिक देव ने जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष, हस्तिनापुर नगर और राजा युधिष्ठिर के भवन से तुम्हारा संहरण किया है। अत: देवानुप्रिये! तुम इस प्रकार भग्न-हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामान मत बनो। तुम मेरे साथ विपुल भोगार्ह भोगों को भोगती हुई विहार करो। २०९. तए णं सा दोवई देवी पउमनाभं एवं वयासी--एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बारवईए नयरीए कण्हे नाम वासुदेवे मम पियभाउए परिवसइ। तं जइ णं से छण्हं मासाणं मम कूवं नो हव्वमागच्छइ, तए णं अहं देवाणुप्पिया! जं तुमं वदसि, तस्स आणा-ओवाय-वयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामि।। २०९. उस द्रौपदी देवी ने पद्मनाभ से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप द्वीप, भारतवर्ष और द्वारवती नगरी में मेरे पति के भाई श्रीकृष्ण वासुदेव रहते हैं। यदि वे छ: मास के भीतर मुझे खोजने' न आये तो देवानुप्रिय! तुम जिसके लिए कहोगे, उसी की आज्ञा, उपपात, वचन और निर्देश के अनुसार रहूंगी। २१०. तए णं से पउमनाभे दोवईए देवीए एयमटुं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता दोवइं देविं कण्णतेउरे ठवेइ। २१०. उस पद्मनाभ ने द्रौपदी देवी के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर द्रौपदी को कन्याओं के अन्त:पुर में स्थापित कर दिया। २११. तए णं सा दोवई देवी छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबिल-परिग्गहिएणं तवोकम्मेण अप्पाणं भावेमाणी विहरइ। २११. वह द्रौपदी देवी आयम्बिल युक्त निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त ___तप: कर्म से स्वयं को भावित करती हुई विहार करने लगी। दोवईए गवसणा-पदं २१२. तए णं से जुहिडिल्ले राया तओ महत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देविं पासे अपासमाणे सयणिज्जाओ उढेइ, उद्वेत्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करेत्ता दोवईए देवीए कत्थए सुई वा खुइं वा पवत्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडू राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडु रायं एवं वयासी--एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधेब्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं इच्छामि गंताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गण-गवसणं करित्तए॥ द्रौपदी का गवेषणा-पद २१२. उसके मुहूर्त भर पश्चात् राजा युधिष्ठिर प्रतिबुद्ध हुआ। जब अपने पास द्रौपदी देवी को नहीं देखा तो वह शयनीय से उठा। उठकर उसने द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज की। जब उसे द्रौपदी देवी का कहीं भी कोई सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त नहीं मिला तो वह जहां पाण्डु राजा था, वहां आया। वहां आकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोला--तात! ऊपर खुले में सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पास से द्रौपदी देवी का जाने किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व ने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। अत: तात! मैं द्रौपदी देवी की चारों ओर खोज करना चाहता हूँ। २१३. तए णं से पंडू राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी--गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा-उग्घोसेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया! जुहिट्ठिलस्स रपणे आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न नज्जइ केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया वा निया वा अवक्खित्ता वा। तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सई वा खुइं वा पवत्तिं वा परिकहेइ, तस्स णं पंडू राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ त्ति कटु घोसणं घोसावेह, घोसावेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह ।। २१३. उस पाण्डुराजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रियो! तुम जाओ और हस्तिनापुर नगर के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में उच्च स्वर से उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो--देवानुप्रियो! इस प्रकार ऊपर खुले में सोये हुए राजा युधिष्ठिर के पास से द्रौपदी देवी का न जाने किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गन्धर्व ने अपहरण कर लिया है या उसे कोई कहीं ले गया है या किसी कूप, गर्त आदि में गिरा दिया है। ___अत: देवानुप्रियो! जो भी द्रौपदी देवी का सुराख, चिह्न अथवा वृत्तान्त बताएगा, उसे पाण्डुराजा विपुल अर्थसम्पदा प्रदान करेगा। इस प्रकार घोषणा करो। घोषणा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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