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________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र २०४-२०८ पंच पंडवे मोत्तू अण्णं पुरिसेणं सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरिस्सइ तहावि य णं अहं तव पियट्टयाए दोव देवं हं हन्यामाणेमि त्ति कट्ट् पउमनाभं आपुच्छ, आपुच्छित्ता ताए उक्किद्वाए तुरियाए चलाए चंडाए जवणाए सिग्धाए उदुधाए दिव्वाए देवगईए लवणसमुदं मज्जांमण जेगेव हत्यिणाउरे नयरे तेणेव पहारेत्य गमणाए । ३३८ २०५. तेण कालेन ते समएणं हथिणाउरे नवरे जुहिद्विल्ले राया दोवई देवीए सद्धिं उप्पं आगासतलगंसि सुहप्पसुत्ते यावि होत्या ।। २०६. तए णं से पुव्वसंगइए देवे जेणेव जुहिट्ठिल्ले राया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छा, उवागच्छिता दोवईए देवीए ओसोवणि दलय, दलइत्ता दोवई देविं गिड, गिन्हित्ता ताए उनिकट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए जवणाए सिग्घाए उद्घुयाए दिव्वाए देवगईए जेणेव अवरकंका जेणेव पउमनाभस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमनाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवई देविं ठावे, ठावेत्ता ओसोवणि अवहरङ्ग, अवहरित्ता जेणेव पउमनाभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी -- एस णं देवाणुप्पिया! मए उत्पिणाउराओ दोवई देवी इहं हब्बाणीया तव असोगवणियाए चिट्ठद्द अओ परं तुम जागसि ति कट्टु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दितिं पडिगए ।। दोवईए चिंता - पदं २०७. तए णं सा दोवई देवी तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं वयासी--नो खलु अम्हं एसे सए भवणे नो खतु एसा अम्हं सगा असोगवणिया । तं न नज्जइ णं अहं केणइ देवेण वा दाणवेण वा किण्णरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा अण्णस्स रणो असोगवणियं साहरियत्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाय ।। पउमनाभस्स आसासण-पदं २०८. तए णं से पउमनाभे राया व्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए अंतेउर-परियाल - संपरिवुडे जेणेव असोगवणिया जेणेव दोवई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवरं देविं ओहयमणसंकप्प करतलपहत्वमुहिं अट्टज्यानोवगयं झियायमाणिं पास, पाखिता एवं वयासी -- किन्नं तुमं देवाणुप्पिए! ओहयमण- संकप्पा करतलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया झियाहि ? एवं खलु तुमं देवाष्णुप्पिए! मम पुण्यसंगइएणं देवेण जंबुद्दीवाओ दीवाओं भारहाओ Jain Education International नायाधम्मकहाओ पाण्डवों को छोड़कर अन्य पुरुष के साथ मनुष्य संबंधी प्रधान भोगाई भोगों को भोगती हुई बिहार करे तथापि मैं तुम्हारी प्रियता के लिए द्रौपदी देवी को यहां शीघ्र ही लाता हूं। यह कह उसने पद्मनाभ से जाने के लिए पूछा। पूछकर उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, वेगपूर्ण, शीघ्र उद्धत, दिव्य, देवगति से लवणसमुद्र के बीचोंबीच होता हुआ जिधर हस्तिनापुर नगर था, उधर प्रस्थान किया । २०५. उस काल और उस समय हस्तिनापुर नगर में राजा युधिष्ठिर देवी द्रौपदी के साथ ऊपर खुले में सुखपूर्वक सोया हुआ था। F २०६. वह पूर्व सांगतिक देव जहां राजा युधिष्ठिर था, जहां देवी द्रौपदी थी, वहां आया। वहां आकर देवी द्रौपदी पर अवस्वापिनी विद्या का प्रयोग किया। अवस्वापिनी का प्रयोग कर द्रौपदी देवी को उठा लिया। उठा कर उत्कृष्ट, त्वरित चपल, चण्ड, वेगपूर्ण शीघ्र, उद्धत, दिव्य, देवगति से जहां अवरकंका थी, जहां पद्मनाभ का भवन था, वहां आया। वहां आकर पद्मनाभ के भवन की अशोकवनिका में देवी द्रौपदी को स्थापित किया स्थापित कर अवस्वापिनी का अपहार किया। तत्पश्चात् वह जहां राजा पद्मनाभ था, वहां आया। आकर इस प्रकार बोला- यह लो देवानुप्रिय! मेरे द्वारा हस्तिनापुर से यहां शीघ्र ही आनीत द्रौपदी देवी तुम्हारी अशोकवनिका में स्थित है। इससे आगे जानो।' यह कहकर वह जिस दिशा से आया था, तुम उसी दिशा में चला गया। I -- द्रौपदी का चिन्ता - पद २०७. वह देवी द्रौपदी मुहूर्त्त भर पश्चात् जागी। उस भवन और अशोक वनिका को न पहचानती हुई वह इस प्रकार बोली- यह हमारा अपना भवन नहीं है, यह हमारी अपनी अशोकवनिका नहीं है। अतः न जाने मैं किस देव, दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अथवा गंधर्व के द्वारा किसी दूसरे राजा की अशोकवनिका में संहृत हुई हूँ । इ प्रकार वह भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न हो गई। पद्मनाभ का आश्वासन पद २०८. वह पद्मनाभ राजा स्नान कर यावत् सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित और अन्तःपुर परिवार से परिवृत होकर जहां अशोकवनिका थी, जहां द्रौपदी देवी थी वहां आया। वहां आकर उसने द्रौपदी देवी को भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबे हुए चिन्तामग्न देखा । देखकर वह इस प्रकार बोला- देवानुप्रिये! तुम इस प्रकार भग्न- हृदय हो हथेली पर मुंह टिकाए आर्त्तध्यान में डूबी हुई चिन्तामग्न क्यों हो रही हो? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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