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________________ सोलहवां अध्ययन सूत्र १८१-१८५ कल्लाणकार पदं - १८१. तए णं से पंडू राया ते पंच पंडवे दोवई च देविं पट्टयं दुरुहावेइ, दुरुहावेत्ता सेयापीएहिं कलसेहिं ण्हावेइ, ण्हावेत्ता कल्लाणकारं करेइ, करेत्ता ते वासुदेवपामोवले बहवे रायसहस्से विपुलेणं असण- पाण- खाइम- साइमेणं पुप्फ-वत्थ-गंध- मल्लालंकारेण यसक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ ।। १८२, तए णं ताई वासुदेवपामोक्लाइं बहूइं रायसहस्साइं पंडुएणं रण्णा सिज्जिया समाणा जेणेव साई-साई रजाई जेणेव साई-साई नगराई तेणेव पडिगयाई ।। १८३. तए णं ते पंच पंढवा दोवईए देवीए सद्धिं कल्ताकल्लिं वारंवारेणं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति ।। ३३४ नारदस्स आगमण-पदं १८४. तए गं से पंडू राया अण्णया कयाई पंडवेहिं कोंतीए देवीए दोवईए य सद्धिं अंतोतिउरपरियालसद्धिं संपरिवुढे सीहासणवरगए यावि विहरइ ।। १८५. इमं चणं कच्छुल्लनारए-- दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो- अंतो य कलुसहियए मज्झत्थ - उवत्थिए य अल्लीण - सोमपियदंसणे सुरूवे अमइल सगल परिहिए कालमियचम्म उत्तरासंगरयवच्छेदंड-कमंडलु हत्ये जडामउड- दित्तसिरए जन्नोवइयगणेत्तिय - मुंजमेहला-वागलधरे हत्थकय-कच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणि ओक्पणुष्ययणि लेखणीसु य संकामणि- आभिजगि- पण्णति गमणि यभिणीसु य बहूसु विज्जाहरी विज्जासु विस्सुयजसे इट्ठे रामस्त य केसवस्तय पज्जुन-पव-संब-अनिरुद्ध निसढ- उम्मुय-सारण-गय-सुमुहडुम्मुहाईणं जायवाणं अद्भुट्ठाण य कुमारकोडीणं हियय-दइए संथवए कलह - जुद्ध-कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहूसु य समरसयसंपराएसु दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवर-वीरपुरिस - तेलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवई पक्कमणिं गगण-गमणदच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो यामागर नगर खेड- कब्बड मडंब दोणमुह-पट्टण संवाहसहस्समंडियं चिमियमेदनीयं निम्भर जणपदं वसुहं ओलोइते रम्मं हत्थिणाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि झत्ति - वेगेण समोइए। Jain Education International - - नायाधम्मकहाओ कल्याणकार पद १८१. पाण्डु राजा ने पांचों पाण्डवों और द्रौपदी देवी को पट्ट पर बिठाया । बिठाकर रजत-स्वर्णमय कलशों से उन्हें नहलाया। नहलाकर कल्याणकार (संस्कार) किया। उसके पश्चात् वासुदेव प्रमुख उन अनेक हजार राजाओं को अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य से तथा पुष्प, वस्त्र, गन्धचूर्ण, माला और अलंकारों से सत्कृत किया। सम्मानित किया । सत्कृत- सम्मानित कर उन्हें प्रतिविसर्जित किया। १८२. पाण्डु राजा के द्वारा विसर्जित किए जाने पर वे वासुदेव प्रमुख अनेक हजार राजा, जहां अपने-अपने राज्य थे, जहां अपने-अपने नगर थे, वहां चले गए। १८३. तब वे पांचों पाण्डव प्रतिदिन अनुक्रम से द्रौपदी देवी के साथ प्रधान भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार करने लगे। नारद का आगमन - पद १८४, किसी समय वह पाण्डु राजा पांचों पाण्डवों, कुन्ती, द्रौपदी देवी तथा अन्तरंग अन्तःपुर परिवार के साथ, उससे परिवृत हो, प्रवर सिंहासन पर आसीन हो विहार कर रहा था। १८५. उसी समय ‘कच्छुल्ल' नारद पाण्डुराजा के भवन में पूर्ण वेग के साथ उतरा। वह देखने में अतिभद्र और विनीत था, लेकिन कभी-कभी कलुष हृदय हो जाता था। वह माध्यस्थ- व्रत को उपलब्ध और आश्रितों के लिए सौम्य, प्रियदर्शन और सुरूप था। वह अमलिन, अखण्ड वस्त्र पहने हुए था। उसका हृदय कृष्ण मृग के चर्म से बने उत्तरासंग से सुशोभित था। हाथ में दण्ड कमण्डलु थे। मस्तक जटा मुकुट से दीपित था वह यज्ञोपवीत, गणेत्रिका ( कलई पर पहनने की रुद्राक्ष माला) मुंज- मेखला और वृक्षों की छाल पहने हुए था। हाथ में कच्छभि वीणा थी। वह संगीत-प्रिय, भूमिचर प्राणियों में प्रधान, संवरणी, आवरणी, अवपतनी, उत्पतनी और श्लेष्णी--इन विद्याओं में तथा संक्रमणी अभियोगिनी, प्रति गमनी और स्तम्भिनी इन विद्याधर संबंधी नाना विद्याओं में विश्रुत यश वाला, राम और केशव को इष्ट, प्रद्युम्न, प्रतीप, साम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुक्त, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि साढ़े तीन करोड़ पादव कुमारों का हृदय वल्लभ, उनका प्रशंसक, कलह, युद्ध और कोलाहल- प्रिय, लड़ाई-झगड़ा चाहने वाला, अनेक शत समर और सम्पराय देखने में रत, पटुता पूर्वक कलह की टोह में रहने वाला और तीन लोक में बलिष्ठ, वीर पुरुष प्रवर दसार राजाओं के लिए सदा असमाधि का कारण था। वह गगन-गमन में दक्ष, भगवती प्रक्रमणी विद्या को आमंत्रित कर आकाश में उड़ा तथा गगन को लांघता हुआ हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पत्तन, सम्बाध For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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