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द्वितीय अध्ययन सूत्र ११-१२
य आभोएमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे, बहुजणस्स छिद्देसु य विसमेसु य विहुरेसु य वसणेसु य अब्भुदासु य उस्सवेसु य पसवेसु य तिहीसु य छणेसु य जण्णेसु य पव्वणीसु य मत्तपमत्तस्स य वक्खित्तस्स य वालरस य सुहियस्स य दुहियस्स य विदेसत्यस्स य विप्पवसियस्स य मग्गं च छिद्दं च विरहं च अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ । बहिया वि य णं रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य उज्जाणेसु य वावि- पोक्खरणि दीहिय- गुंजालिय-सर- सरपंतियसरसरपंतियासु य जिष्णुज्जाणेसु य भग्गकूवेसु य मालुयाकच्छएसु य सुसाणेसु य गिरिकंदरेसु य लेणेसु य उवट्ठाणेसु य बहुजणस्स छिद्देसु य जाव अंतरं च मग्गमाणे गवेसमाणे एवं च णं विहरइ ।।
भद्दा संताणमणोरह-पदं
१२. तए णं तीसे भद्दाए भारियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि कुटुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था -- अहं धणेणं सत्यवाणं सद्धिं बहूणि वासाणि सह-फरिस - रस-गंध-रूवाणि माणुसगाइं कामभोगाई पच्चणुब्भवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि ।
तं धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, संपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयपुण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयलक्खणाओ णं ताओ अम्मयाओ, कयविहवाओ णं ताओ अम्मयाओ, सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले तासिं अम्मयाणं, जासि मण्णे नियगकुच्छिसंभूयाइं थणदुद्ध-लुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपयंपियाई थणमूला कक्खदेसभागं अभिसरमाणाइं मुद्धयाइं थणयं पियंति, तओ य कोमलकमलोवमेहिं हत्थेहिं गिण्हिऊणं उच्छंग- निवेसियाणि देंति समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो- पुणो मंजुलप्पभणिए । तं णं अहं अघण्णा अण्ण अकलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता । तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभाए रयणी जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते धणं सत्यवाहं आपुच्छित्ता धणेणं सत्यवाहेणं अब्भणुण्णाया समाणी सुबहु विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता सुबहु पुप्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहूहिं मित्त-नाइ - नियग
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नायाधम्मकाओ
और तीव्रवैर--प्रतिशोध वाला था। वह राजगृह नगर के बहुत सारे प्रवेशमार्गों, निर्गममार्गों, द्वारों, पार्श्वद्वारों, ( पीछे की खिड़कियों) बाड़ के छेदों, प्राकार के छेदों, नगर के नालों, जहां एक से अधिक पथ मिलते हों और विभक्त होते हों - उन स्थानों, द्यूत खेलने के स्थानों, मधुशालाओं, गणिकागृहों, तस्करों के स्थानों, तस्करों के घरों, दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, नाग मन्दिरों, भूत-मन्दिरों, यक्षायतनों, सभाओं, प्रपाओं, दुकानों और सूने घरों को देखता हुआ, उनकी मार्गणा-गवेषणा करता हुआ विहार करता था। वह अवकाश, विषमावस्या, वियोग, कष्ट, अभ्युदय, उत्सव, जन्मप्रसंग, महोत्सव, पुण्यतिथि, महोत्सव, यज्ञ और पर्वणी - कौमुदी महोत्सव आदि--इन अवसरों पर जब बहुत सारे लोग मत्त प्रमत्त, व्याक्षिप्त, व्याकुल, सुखी-दुःखी, विदेश गये हुए अथवा प्रवासी होते उनके मार्ग, छिद्र विरह और अन्तर की मार्गणा - गवेषणा करता हुआ विहार करता था ।
राजगृह नगर के बाहर भी आरामों, उद्यानों, वापियों, पुष्करिणियों दीर्घिकाओं, गुञ्जालिकाओं, सरोवरों, सरोवर-पंक्तियों, सरोवरों से संलग्न सरोवर पंक्तियों, पुराने उद्यानों, भग्नकूपों, मालुकाकक्षों, श्मशानों, गिरि-कन्दराओं, पर्वत में गुफाओं, उत्कीर्ण गृहों और सभा मण्डपों में बहुत सारे लोगों के अवकाश आदि अवसरों पर यावत् अन्तर की मार्गणा - गवेषणा करता हुआ विहार करता था ।
भद्रा का सन्तान मनोरथ- पद
१२. किसी समय मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब - जागरिका" करते हुए भद्रा भार्या के मन में आन्तरिक, चिन्तित, अभिलषित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-- 'मैं धन सार्थवाह के साथ बहुत वर्षों से शब्द, स्पर्श, रस, गंध और रूप-- इन मनुष्य-सम्बन्धी काम - भोगों का अनुभव करती हुई विहार कर रही हूं, फिर भी मैं एक भी बालक या बालिका को जन्म नहीं दे सकी।
इसलिए धन्य हैं वे माताएं, पुण्यवती हैं वे माताएं, कृतार्थ हैं वे माताएं, कृतपुण्य हैं वे माताएं, कृतलक्षण हैं वे माताएं, वैभवशालिनी हैं वे माताएं, उन्हीं माताओं ने मनुष्य के जन्म और जीवन का फल पाया है, जिनका अपने उदर से उत्पन्न, स्तन के दूध में लुब्ध, मीठी बोली बोलते, तुतलाते और स्तनमूल से बगल की ओर सरकते मुग्ध बच्चे स्तनपान करते हैं और माताएं अपने कमल जैसे कोमल हाथों से उन्हें खींच कर अपनी गोद में बिठाती हैं। तथा पुनः पुनः प्रिय, सुमधुर और मंजुल बोलों वाली लोरियां देती हैं। इस दृष्टि से मैं अधन्या, अपुण्या और अकृतलक्षणा हूं कि इनमें से एक भी वस्तु मुझे प्राप्त नहीं है।
अत: मेरे लिए उचित है--मैं उषाकाल में, पौ फटने पर यात् सहस्ररश्मि, दिनकर, तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के कुछ ऊपर जाने पर, धन सार्थवाह से पूछ, उससे अनुज्ञा प्राप्त कर, बहुत सारा विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाकर बहुत सारे मित्र,
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