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________________ नायाधम्मकहाओ निक्खेव पदं ३५. एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं तच्चस्स नायज्झयणस्स मट्ठे पण्णत्ते । -त्ति बेमि ।। वृत्तिकृता समुद्धृता निगमनगाथा जिणवरभातियभावेतु भावसच्चेसु भावओ नो कुज्जा संदेहं संदेहोऽणत्थहेउ त्ति , मइमं । ।।१।। निसंदेहत्तं पुण, गुणहेउं जं तओ तयं कज्जं । एत्वं दो सेट्ठिसुया, अंडयगाही उदाहरणं । ॥२॥ कत्थइ महदुब्बल्लेग, तब्बिहापरियविरहओ वावि । नेयमहणत्तणेणं, नाणावरणोदयेणं च ।।३।। ऊदाहरणासंभवे य, सइ सुठु जं न बुज्झेज्जा । सब्वण्णुमयमवितहं, तहावि इइ चिंतए मइमं । ॥४॥ अणुवकय-पराणुग्गह-परायणा उ जिणा जगप्पवरा । जिब राग-दोस- मोहा, प नन्नहावाइणो तेण ॥ ॥५॥ Jain Education International तृतीय अध्ययन : सूत्र ३५ निक्षेप पद ३५. जम्बू ! इस प्रकार धर्म के आदिकर्ता तीर्थंकर यावत् सिद्धिगति नाम वाले स्थान को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञाता के तीसरे अध्ययन का यह अर्थ प्रज्ञप्त किया है। -- ऐसा मैं कहता हूं। ११९ वृत्तिकार द्वारा समुद्धृत निगमन गाया- १. मतिमान पुरुष जिनवर द्वारा भाषित भावसत्य भावों में भाव से सन्देह न करे। सन्देह अनर्थ का हेतु है । २. इसके विपरीत निःसंदेहता गुण का हेतु है, अतः भाव से असंदिग्ध रहे। यहां अण्डग्राही दो श्रेष्ठीपुत्र उदाहरण हैं। ३४. कदाचित् मति की दुर्बलता, तथाविध आचार्य का अभाव, ज्ञेय की अग्रहणता, ज्ञानावरणीय कर्म का उदय, हेतु और दृष्टान्त का अभाव - कारणों से एक बार सम्यक् बोध न भी हो, तो भी मतिमान पुरुष यह सोचे सर्वज्ञ द्वारा अनुमत तत्त्व अवितथ है। ५. अकारण परानुग्रह-परायण, राग-द्वेष और मोह के विजेता जगत्-प्रवर जिन अन्यथा भाषण नहीं करते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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