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________________ तृतीय अध्ययन : सूत्र २८-३४ ११८ २८. तए णं ते मयूर - पोसगा जिणदत्तपुत्तस्स एयमहं पडिसुणेंति, तं मयूर पोयगं गेहंति, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति, तं मयूर पोयगं बहूहिं मयूर पोसण पाओगोहिं दब्वेहिं अणुपुब्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेंति, नदुल्लगं च सिक्खावेंति ।। २९. तए से मयूर पोयए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेते जोब्बणगमणुपत्ते लक्खण वंजण-गुणोववेए माणुम्माणप्यमाणपठिषुण्णपक्त्र- पेहुणकलावे विचित्त पिच्छततचंदए नीलकंठ नच्चणसीलए एगाए चप्पुडियाए क्याए समाणीए अणेगाई नदुल्लगसवाई के काइयस्याणि य करेमाणे विहरइ ।। ३०. तए णं ते मयूर पोसगा तं मयूर पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाव - केकाइयसपाणि य करेमाणं पासित्ता णं तं मयूर पोयगं गेण्डति, हित्ता जिणदत्तपुत्तस्स उवर्णेति । ३१. तए णं से जगदत्तपुते सत्यवाहदारए मयूर- पोयगं उम्मुक्कबालभावं जाब केकाइयसयाणि य करेमाणं पासित्ता हट्टतुझे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलइत्ता पडिविसज्जेइ ।। ३२. तए णं से मयूर - पोयगे जिणदत्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए नंगोला - भंग - सिरोधरे सेयावंगे ओयारिय-पइण्णपक्खे उक्खित्तचंदकाइय-कलावे केक्काइयसयाणि मुंचमाणे नच्चइ ।। ३३. तए गं से जिणदत्तपुते तेणं मयूर पोयएणं चंपाए नवरीए सिंघाडग-तिग-चक्क चच्चर-चउम्मुह- महापहपहेसु सएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहिं जयं करेमाणे विहरइ ।। ३४. एवामेव समणाउसो! जो अहं निगंधो वा निगंधी वा आयरिय उवज्झायाणं अंतिए मुटे भवित्ता अगाराज अणगारिय पव्वइए समाणे पंचमहव्वएसु छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे निस्सकिए निक्कखिए निव्वितिगिंछे, से णं इहभवे चैव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावगाणं बहूणं सावियाण व अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे प्रयणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेदयं विगएणं पज्जुवासणिज्ने भवद्द । परोए वि य णं नो बहूणि हत्यच्छेयणाणि य कण्णच्छेयणाणि य नासाख्यणाणि य एवं हिययउपायणाणि व वसणुप्पायणाणि य उल्लंबणाणि य पाविहिड, पुणो अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं बीईवइस्सह । । Jain Education International - नायाधम्मक हाओ २८. उन मयूर पोषक ने जिनदत्तपुत्र के इस अर्थ को स्वीकार किया। उस मोर के बच्चे को हाथ में उठाया। जहां अपना घर था, वहां आए । उस मोर के बच्चे का बहुत से मयूर पोषण प्रायोग्य द्रव्यों से क्रमशः संरक्षण और संगोपन करते हुए संवर्द्धन किया और उसे नृत्य करना सिखाया। २९. वह मोर का बच्चा शैशव को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बन, यौवन को प्राप्त हो, लक्षण और व्यञ्जन की विशेषता वाला, मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण पक्ष और मयूरांग कलाप वाला, सैंकड़ों चन्द्रों से युक्त रंग-बिरंगी पांखों वाला, नीलकण्ठ, नर्तनशील हो एक चुटकी बजाते ही अनेक सैकड़ों प्रकार के नृत्य और सैकड़ों प्रकार के केकारव करता हुआ विहार करने लगा । ३०. उन मयूर-‍ -पोषकों ने उस मोर के बच्चे को शैशव को पार कर यावत् सैकड़ों प्रकार के केकारव करते हुए देखकर उस मोर के बच्चे को हाथ में उठाया। उठाकर जिनदत्त पुत्र को सौंप दिया। ३१. उस मोर के बच्चे को शैशव को पार कर यावत् सैकड़ों प्रकार के कारव करते हुए देखकर हृष्ट-तुष्ट हुए सार्थवाह दारक जिनदत्त पुत्र ने उन मयूर पोषकों को विपुल जीवन निर्वाह योग्य प्रीतिदान दिया । प्रीतिदान देकर उन्हें प्रतिविसर्जित कर दिया । ३२. जिनदत्त के द्वारा एक चुटकी बजाते ही वह मोर का बच्चा अपनी गर्दन को पूंछ की भांति टेढ़ा कर अपांग की श्वेतिमा को प्रदर्शित करता हुआ पाखों को फैला (छतरी तान कर ) चन्द्रक युक्त कलाप को ऊपर उठा, सैकड़ों प्रकार के केकारव करता हुआ नृत्य करने लगा। ३३. वह जिनदत्तपुत्र उस मोर के बच्चे के कारण चंपानगरी के दोराहों, तिराहों, चौराहों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और मार्गों में सैकड़ों, हजारों और लाखों के दांव जीतता हुआ विहार करने लगा । ३४. आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार हमारा जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्द्वन्दी आचार्य उपाध्याय के पास मुण्ड हो अगार से अनगारता में प्रवजित हो, पांच महाव्रतों षट्जीवनिकायों और निर्धन्य प्रवचन में निःशक्ति, नि:कांक्षित और निर्विचिकित्सित रहता है, वह इस जीवन में बहुत श्रमणों बहुत भ्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याण, मंगल, देव, चैत्य और विनय पूर्वक पर्युपासनीय होता है। परलोक में भी वह बहुत हस्तछेदन, कर्णछेदन, नासाछेदन तथा इसी प्रकार हृदय-उत्पाटन, वृषण-उत्पाटन और फांसी को प्राप्त नहीं करेगा और वह अनादि-अनन्त, प्रलम्बमार्ग तथा चार अन्त वाले संसार रूपी कान्तार का पार पा लेगा - मुक्त हो जाएगा । ' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003624
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Nayadhammakahao Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages480
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_gyatadharmkatha
File Size17 MB
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